३७० गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। विरले को ही अनेक जन्मों के अनन्तर परमावधि की यह स्थिति अन्त में प्राप्त होती है। स्थितप्रज्ञ-अवस्या या जीवन्मुक्त अवस्था कितनी ही दुप्पाप्य क्यों न हो, पर जिस पुरुष को यह परमावधि की सिद्धि एक बार प्राप्त हो नाय उसे कार्य-अनार्य के अयवा नीतिशास्त्र के नियम बतलाने की कमी आवश्यकता नहीं रहती । ऊपर इसके जो लनण यतला पाये हैं, उन्हीं से यह वात पार ही निष्पन्न हो जाती है। क्योंकि परमावधि की शुद्ध, सम और पवित्र बुद्धि ही नीति का सर्वस्व है, इस कारण ऐसे स्थितप्रज्ञ पुरुषों के लिये नीति-नियमों का उपयोग करना मानो स्वयंप्रकाश सूर्य के समीप अन्धकार होने की कल्पना करके से मशाल दिखलाने के समान, असमन्जस में पड़ना है । किसी एक-आध पुरुष के, इस पूर्ण अवस्था में पहुंचने या न पहुंचने के सम्बन्ध में शक्षा हो सकेगी। परन्तु किसी भी रीति से जब एक बार निश्चय के जाय कि कोई पुरुष इस पूर्ण अवस्था में पहुँच गया है, तब उसके पाप-पुण्य के सम्बन्ध में, अध्यात्मशास्त्र के दल्लिवित्त सिद्धान्त को छोड़ और कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती। कुछ पश्चिमी राजधर्मशास्त्रियों के मतानुसार जिस प्रकार पर स्वतन्त्र पुरुष में या पुरुषसमूह में राजसत्ता अधिष्ठित रहती है, और राजानियमों से प्रजा के वबे रहने पर भी वह राजा उन नियमों से अना रहता है, ठीक इसी प्रकार नीति के राज्य में स्थितप्रज्ञ पुल्पों का अधिकार रहता है । उनके मन में कोई भी काम्य युद्धि नहीं रहती, अतः केवल शान से ग्रात हुए कर्तव्यों को छोड़ और किसी भी हेतु से कम करने के लिय वै प्रवृत्त नहीं हुआ करते; अतएव अत्यन्त निर्मल और शुद्ध वासनावाले इन पुरुषों के व्यवहार को पाप या पुण्य, नीति व अनीति शब्द कदापि लागू नहीं होते; वे तो पाप और पुण्य से बहुत दूर, आगे पहुँच जाते हैं। श्रीशङ्कराचार्य ने कहा है- नित्रगुण्ये पथि विचरतां को विधिः को निषेधः । "जो पुरुष त्रिगुणातीत हो गये, उनको विधि-निपेवरूपी नियम बाँध नहीं सकते " और वौद्ध ग्रन्यकारों ने भी लिखा है कि "जिस प्रकार उत्तम हीरे की विसना नहीं पड़ता उसी प्रकार जो निवागा पद का अधिकारी हो गया, उसके कर्म की विधि- नियमों का अङ्गा लगाना नहीं पड़ता" (निलिन्दप्रश्न. ४.५. ७) । कौपीतकी उपनिषद (३.१) में, इन्द्र ने प्रतर्दन से जो यह कहा है कि आत्मज्ञानी पुरुष कने मातृहत्या, पितृहत्या अथवा वृणहत्या श्रादि पाप भी नहीं लगते," अथवा गीता (८.१७) में, जो यह वर्णन ई कि अहङ्कार-युद्धि से सर्वथा विमुक पुरुष यदि लोगों को मार भी डाले तो भी वह पाप-पुण्य से सर्वदा बेलाग ही रहता है। उसका तात्पर्य भी यही है (देखो पञ्चदशी.१४. १६ और 'धम्मपद' नामक वाद अन्य में इसी ताव का अनुवाद किया गया है (देखो धम्मपद, लोज २६४ और २८५) नई वाइपल में इंसा के शिष्य पाल ने जो यह कहा है कि " मुझे कधीतकी उपनिषद् का वाच्य यह है-" यो मां विजानीयानास्य केनत्रित कर्ममाटोको नीयते न मातृवधेन न पितृवधेन न स्तेयेन न भ्रूणहत्या " धन्पद का शोक इस प्रकार है:- (6 .
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