३६८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । से जाँच कर विचार करना चाहिये कि इनके यताव का ययायं रहस्य या मूल तत्व क्या है। इसे ही कर्मयोगशास्त्र कहते हैं। चौर ऊपर जो ज्ञानी पुरुष बतलाये गये है, उनकी स्थिति और पति ही इस शाय का आधार है। इस जगत् के सभी पुरुष यदि इस प्रकार के ग्रामज्ञानी और कर्मयोगी हों, तो कर्मयोगशाच की जलत ही न पढ़ेगी। नारायणीय धर्म में एक स्थान पर कहा है- एकान्तिनो हि पुरुषा दुर्लभा वयो नृप । योकान्तिभिराकोण जगत् स्यात्कुदनन्दन ॥ अहिंनकरात्मविन्द्रिः सर्वभूतहित रतः। मदेत् कृतटुगमानिः आशीः कमविवर्जिता ।। " एकान्तिक अर्थात् प्रवृत्तिप्रधान भागवतधर्म का पूर्णतया आचरण करनेवाले पुरुषों का अधिक मिलना कठिन है । शात्मज्ञानी, अहिंसक, एकान्तधर्म के ज्ञान और माणिमात्र की भलाई करनेवाले पुल्पों से यदि यह जगत् भर जाये तो आशी:- कर्म अर्थात् काम्य अथवा स्वायंबुदि से दिये हुए सारे कर्म इस जगत से दूर हो कर रिश्तयुग प्राप्त हो जावेगा " (शां.३४८.६२, ६३)। क्योंकि ऐसी स्थिति में सभी पुरुषों के ज्ञानवान् रहने से कोई किसी का नुकसान तो करेगा ही नहीं प्रत्युत प्रत्येक मनुष्य सब के कल्याण पर ध्यान दे कर, तदनुसार ही शुद्ध अन्तः- करण और निष्कान सुदि से अपना यताव करेगा। इनारे शास्त्रकारों का मत है कि बहुत पुराने समय में सनाज की ऐसी ही स्थिति थी और यह फिर कमी न कमी प्राप्त होगी ही (समा. शां. ५६. १४); परशु पश्चिमी पारीढत पहली बात को नहीं मानते-वे अदाचीन इतिहास के आधार से कहते है कि पहले कभी ऐसी स्थिति नहीं थी; किन्तु भविष्य में मानव जाति के सुधारों की बदौलत ऐसी स्थिति का मिल जाना कभी न कभी सम्भव हो जायेगा। लो हो; यहाँ इतिहास या विचार इस लनय कर्तव्य नहीं है। ही, यह कहने में कोई हानि नहीं कि समाज की इस अत्युत्कृष्ट स्थिति अथवा पूर्णावत्या में प्रत्येक मनुष्य परन ज्ञानी रहेगा, और वह जो व्यवहार करेगा उसी को शुद्ध, पुण्यक्षारक, धन्यं अथवा कर्तव्य ही पराघाटा मानना चाहिये । इस मत को दोनों ही मानते हैं। प्रसिद्ध अंग्रेज शिाल-माता स्पेन्सर ने इसी मत का अपने गीतिशाव-विषयक अन्य के अन्त में प्रतिपादन किया है और कहा कि प्राचीन काल में ग्रीस देश के तत्वज्ञानी पुरुषों ने यही सिद्धान्त किया था ! उदाहरणार्थ, यूनानी तत्ववेत्ता प्लेटो अपने ग्रन्य में लिखता है-तत्व. ज्ञानी पुरुष को जो कर्म प्रशत्त ऊँचे, वही शुभकारक और न्याय्य है। सर्व साधारण मनुष्यों को ये धर्म विदित नहीं होते, इसलिये उन्हें तत्त्वज्ञ पुरुष के ही निर्णय को प्रमामा मान लेना चाहिये । रिस्लॉटल नमक दूसरा ग्रफि तव अपने नीतिशान. Spencer's Dista of Ethics, Chap. IV. pp. 273-278. First R इसे Absolute Ethics नाम दिया है।
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