वारहवाँ प्रकरण । सिद्धावस्या और व्यवहार । संपां यः सुहनित्यं सर्वपां च हिते रतः कर्मणा मनसा वाचा स धर्म वेद नाजले ||* महामारत, शांति. २६.६ जिस मार्ग का यह मत है कि सम्मज्ञान हो जाने से जय बुद्धि अत्यन्त सम और निष्काम हो जाये तय फिर मनुन्य को पुन्छ भी कर्तव्य आगे के लिये रह नहीं जाता; और इसी लिर, विरक्त बुद्धि से ज्ञानी पुरुष को इस क्षण- मगुर संसार के दुःसमय और शुष्क व्यवहार एकदम छोड़ देना चाहिये, उस मार्ग के परिटत इस बात को कदापि नहीं जान सकते कि दर्मयोग प्रयागृहत्यानम के यतांव का भी कोई एक विचार करने योग्य शारन है । संन्यास लेने से पहले चित की शुद्धि हो कर ज्ञान-प्राप्ति हो जानी चाहिये, इसी लिय उन्हें मंजूर है कि संसार-दुनिया- दारी-के काम उस धर्म से ही करना चाहिये कि जिससे चित्त-वृत्ति शुद्ध होवे अर्थात् वह सात्विक बने । इसी लिये ये समझते हैं कि संसार में ही सदैव बना रहना पागलपन है, जितनी जल्दी हो सके उतनी, जल्दी प्रत्येक मनुष्य संन्यास ले लं, इस जगत में उसका यही परम कर्तव्य है। ऐसा मान लेने से कर्मयोग का स्वतन्त्र महत्त्व कुछ भी नहीं रह जाताः और इसी लिये संन्यासमार्ग के पण्डित सांसारिक कर्तव्यों के विषय में कुछ थोड़ा सा मासनिक विचार करके गाईस्थ्यधर्म के कर्म-कर्म के विवेचन का इसकी अपेक्षा और अधिक विचार कभी नहीं करते कि मनु श्रादि शान्त्रकारों के यतलाये हुए चार नामरूपी ज़ीन से चढ़ कर संन्यास श्रामन की अन्तिम सीढ़ी पर जल्दी पहुँच जाओ। इसी लिये कलियुग में संन्यास मार्ग के पुरस्कता श्रीशकराचार्य ने अपने गीतामाय ने गीता के कर्ममधान वचनों की उपेक्षा की है। प्रथया उन्द केवल प्रशंसात्मक (अर्थवाद-प्रधान) कल्पित किया है और अन्त में गीता का यह फलितार्थ निकाला है कि फर्म-संन्यास धर्म ही गीता भर में प्रतिपाय है। और यही कारण है कि दूसरे कितने ही टीकाकारों ने अपने अपने सन्प्रदाय के अनुसार गीता का यह रहस्य वर्णन किया है कि भगवान् ने रणभूमि पर अर्जुन को निवृत्तिप्रधान प्रांत निरी भक्ति, या पाताल योग अथवा मोक्षमार्ग का ही उपदेश किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि संन्यासमार्ग का अध्यात्मज्ञान निर्दोष है, और उसके द्वारा प्रात होनेवाली साम्यबुदि अथवा १" हे जाजले ! (फहना चाहिये कि) उसी ने धर्म को जाना कि जो कर्म से, मन से और वाणी में सब का हित करने में लगा हुआ है और जो सभी का नित्य लेही है।"
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