पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४०४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

} संन्यास और कर्मयोग। इस मृत्युलोक का व्यवहार चलने के लिये या लोकसंग्रहार्य यचाधिकार निष्कान कर्म, और मोक्ष की प्राप्ति के लिये ज्ञान, इन दोनों का एककालीन समुच्चय ही, अथवा महाराष्ट्र कवि शिवदिन केसरी के वर्णनानुसार- प्रपंच साधुनि परमार्थाचा लाहो ज्याने केला । तो नर मला भला रे मला भला || यही अर्थ, गीता में प्रतिपाय है । कर्मयोग का यह मार्ग प्राचीन काल से चला पर रहा है। जनक प्रभृति ने इसी का नाचरण किया है और स्वयं भगवान् के द्वारा इसका प्रसार और पुनरजीयन होने के कारण इसे ही भागवतधर्म कहते हैं। येलय यातें अच्छी तरह सिद्ध हो मुफी । अप लोकसंग्रह की घष्टि से यह देखना भी पाय- श्यक है, कि इसमान के ज्ञानी पुरप परमार्थ युकलपना प्रपत्र-जगत् का व्यवहार- किस रीति से चलाते हैं। परन्तु यह प्रकरण बहुत बड़ गया , इसलिये इस विषय फा स्पष्टीकरण अगले प्रकरण में करेंगे। n" यक्षी नर मला है जिसने पवसाय कर (सार के मा फल्यों का योनित पालन कर ) परमार्थ यानी मोक्ष की प्राप्ति भी कर ली हो।"