३५८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । वास्तव में यह प्रकरण यहाँ समाप्त हो गया ।परन्तु यह दिखलाने के लिये, कि गीता का सिद्धान्त श्रुति-स्मृति-प्रतिपादित ई, ऊपर भिन्न भिन्न स्थानों पर जो वचन उत किये हैं, उनके सम्बन्ध में कुछ कहना आवश्यक है । क्योंकि उपनिषदों पर जो साम्प्रदायिक भाप्य हैं, उनले यहुतेरों की यह समझ हो गई है, कि समस्त उपनिषद् संन्यातप्रधान या निवृत्तिप्रधान हैं। हमारा यह कथन नहीं कि - निपदों में संन्यासमार्ग है ही नहीं । वृहदारण्यकोपनिषद् में कहा है - यह अनुभव हो जाने पर कि परब्रह्म के सिवा और कोई वस्तु सत्य नहीं है। "कुछ ज्ञानी पुरुष पुत्रैपणा, वित्तपणा और लोकेपण की परवा न कर, 'हम सन्तति से क्या काम ? संसार ही हमारा प्रात्मा है' यह कह कर आनन्द ले मिक्षा माँगत हुए घूमते हैं" (१.४.२२)। परन्तु वृहदारण्यक में यह नियम कहीं नहीं लिखा कि समस्त ब्रह्मज्ञानियों को यही पन स्वीकार करना चाहिये । और क्या है। जिसे ग्रह उपदेश किया गया, उसका इसी उपनिषद् में वर्णन है कि वह जनक राजा ब्रह्मज्ञान के शिखर पर पहुँच कर अमृत हो गया था। परन्तु यह कहीं नहीं बतलाया है, कि उसने याज्ञवल्य के समान जगत् को छोड़ कर संन्यास ले लिया। इससे स्पष्ट होता है, कि जनक का निष्काम कर्मयोग और याज्ञवल्क्य का कर्म- संन्यास-दोना-वृहदारण्यकोपनिषद को विकल्प रूप से सम्मत हैं और वेदान्तस्त्र- कत्ता ने भी यही अनुमान किया है (वेव. ३. ४. १५)। कठोपनिपंद इससे मी धागे बढ़ गया है। पाँचवें प्रकरण में हम यह दिखला आये हैं कि हमारे मत में कठोपनिषद् नै निष्काम कमयाग ही प्रतिपाद्य है । छान्दोग्योपनिषद् (८. ५.६) में यही अर्थ प्रतिपाद्य है, और अन्त में स्पष्ट कह दिया है, कि “गुरु से अध्ययन कर, फिर, कुटुम्ब में रह कर धर्म से वतनेवाला ज्ञानी पुरुप ब्रह्मलोक को जाता है, वहाँ से फिर नहीं लौटता । तैत्तिरीय तया वेताश्वतर पनिपदों के इसी अर्थ के वाक्य जपर दिये गये हैं (ते. १.६ और श्वे. ६. ४)। इसके सिवा, यह भी ध्यान देने योग्य बात है, कि उपनिषदों ने जिन जिन ने दूसरों को ब्रह्मज्ञान का उप- देश निया है उनमें, या उनके ब्रह्मज्ञानी शिप्यों ने, याज्ञवल्य के समान एक-आध दूसरे पुरुष के अतिरिक्त, कोई ऐसा नहीं मिलता जिसने कर्मत्याग रूप संन्यास लिया हो। इसके विपरीत उनके वर्णनों से देख पड़ता है, कि वे गृहस्थानमी ही थे। अतएव कहना पड़ता है, कि सनस्त उपनिपद संन्याल-प्रधान नहीं हैं। इनमें से कुछ में तो संन्याल और कर्मयोग का विकल्प है और कुछ न लिज्ञिान-कर्म लमुच्चय ही प्रतिपादित है। परन्तु उपनिषदों के साम्प्रदायिक भाप्यों में ये भेद नहीं दिखलाय गये हैं। किन्तु यही कहा गया है, कि समस्त उपनिषद् केवल एक ही अर्थ-विशे- पतः संन्यास-प्रतिपादन करते हैं । सारांश, लान्प्रदायिकं टीकाकारों के हाय से गीता की और उपनिपदों की भी एक ही दशा हो गई है। अर्थात् गीता के कुछ श्लोकों के समान उपनिषदों के कुछ मन्त्रों की भी इन नाप्नकारों को खाँचातानी करनी पड़ी है। उदाहरणार्थ, ईशावास्य उपनिषद् को लीजिये ! यद्यपि यह उपनि-
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