पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३९५

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३५६ गीतारहस्य अथवा फर्मयोगशास्त्र। और कर्मठ मनुष्यों की अवस्था हुया करती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सभी कर्म शास्त्रोक्त विधि से और श्रद्धापूर्वक करने के कारण निन्ति (शुद्ध) होते हैं एवं इसी से वे पुण्यप्रद अर्थात् स्वर्ग के देनेवाले हैं। परन्तु शास्त्र का ही सिद्धान्त है, कि बिना ज्ञान के मोक्ष नहीं मिलता, इसलिये स्वर्ग:प्राति की अपेक्षा अधिक महत्त्व का कोई भी फल इन कर्मठ लोगों को मिल नहीं सकता। अतएव जो श्रम. तत्व, स्वर्ग-सुख से भी परे है, उसको प्राप्ति जिसे कर लेनी शो-और यही एक परम पुरुषार्थ है-से उचित है, कि यह पहले साधन समझ कर, और मागे सिद्धावस्या में लोकसंग्रह के लिये प्रर्यात् जीवनपर्यंत " समन्त प्रागिणमान में एक ही धागा है" इस ज्ञानयुक्त बुद्धि ले, निष्काम कर्म करने के मार्ग को ही स्वीकार करे । आयु पिताने के लय मार्गों में यही मार्ग उत्तम है। गीता का अनुसरण कर ऊपर दिये गये नशे में इस मार्ग को कर्मयोग कहा है और इसे ही कुछ लोग कर्ममार्ग या प्रवृत्तिमार्ग भी कहते हैं। परन्तु कर्ममार्ग या प्रवृत्तिमार्ग, दोनों शब्दों में एक दोप है-यह यह कि उनसे ज्ञानविरहित किन्तु श्रद्धा-सहित कर्म करने के स्वर्गप्रद मार्ग का भी सामान्य बोध हुआ करता है । इसलिये ज्ञान-विरहित किन्तु अदायुक्त पान, और ज्ञानयुक्त निष्काम कर्म, इन दोनों का भेद दिखलाने के लिये दो मिन भित शब्दों की योजना करने की आवश्यकता होती है। और, इसी कारण से मनुस्मृति तया भागवत में भी पहले प्रकार के कर्म अर्याद ज्ञानविरहित कर्म को 'प्रवृत्त फर्म ' और दूसरे प्रकार के प्रर्थात् ज्ञानयुक्त निष्काम कर्म को निवृत्त कर्म' कहा है (मनु. १२.८८; भाग ७. १५.४७)। परन्तु हमारी राय में ये शब्द भी, जितने होने चाहिये उतने, निस्सन्दिग्ध नहीं है, क्योंकि निवृत्ति' शब्द का सामान्य अर्थ 'कर्म से परावृत्त होना है। इस शंका को दूर करने के लिये निवृत्त' शब्द के आगे 'कर्म' विशेषाय जोड़ते हैं। और ऐसा करने से निवृत्त ' विशेषण का अर्थ का से परावृत्त नहीं होता, और निवृत्त कर्म-निष्काम कर्म, यह अर्थ निष्पन्न हो जाता है। कुछ भी हो, जब तक 'निवृत्त' शब्द उसने है, तब तक कर्मत्याग की कल्पना मगमें पाये बिना नहीं रहती । इसी लिये शानयुक्त निष्काम कर्म करने के मार्ग को निवृत्ति या निवृत्त कर्म ' न कह कर फर्मयोग' नाम देना हमारे मत में उत्तम है । क्योंकि कर्म के आगे योग शब्द जुड़ा रहने से स्वभावतः उसका अर्थ 'मोद में बाधा न दे कर कर्म करने की युक्ति' होता है; और यज्ञानयुक्त पर्म का तो श्राप ही से निरसन हो जाता है। फिर भी यह न भूललाना चाहिये, कि गीता का कर्मयोग ज्ञानमूलक है और यदि इसे ही कर्ममार्ग या प्रवृ. त्तिमार्ग कहना किसी को अभीष्ट जंचता हो, तो ऐसा करने में कोई हानि नहीं। स्थल-विशेप में भापावैचित्र्य के लिये गीता के कर्मयोग को लक्ष्य कर हमने भी इन शब्दों की योजना की है । अस्तु, इस प्रकार कर्म करने या कर्म छोड़ने के ज्ञान- भूलक और अज्ञानमूलक जो भेद हैं, उनमें से प्रत्येक के सम्बन्ध में गीताशास्त्र का अभिप्राय इस प्रकार है-