३५४ गीतारहस्य अयवा कर्मयोगशास्त्र । (E) पस्नु यदि अपवाद-स्वरूप कोई (६) गुणविभाग-रूप चातुर्वर्य- अधिकारी पुरुप ज्ञान के पश्चात् भी व्यवस्था के अनुसार छोटे बड़े अधिकार अपने ध्यावहारिक अधिकार जनक आदि सभी को जन्म से ही प्राप्त होते हैं। के समान जीवन पर्यन्त जारी रखें, स्वधर्मानुसार प्राप्त होनेवाले इन अधि- तो कोई हानि नहीं। कारों को लोकसंग्रहार्य निसा वृद्धि से समी को निरपवाद-रूप से जारी रखना चाहिये। क्योंकि यह चक्र जगत् को धारा पारने के लिये परमेवर ने ही यनाया है। (१०) इतना होने पर भी कर्म त्याग (१०) यह सच है कि शायांक रीति रूपी संन्यात दी श्रेष्ठ है। अन्य साधनों से सांसारिक फर्म करने पर चित्तशुद्धि के कर्म चित्तगुद्धि के साधनमात्र हैं, होती है। परन्तु पेयल दित्त की शुद्धि ज्ञान और कर्म का ती स्वमार सही ही क्रम का उपयोग नहीं है। जगत् का विरोध है । इसलिये पूर्व प्राश्रम में, व्यवहार चलता रखने के लिये भी कम जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्ली, की घावश्यकता है। इसी प्रकार कान्य चित्तशुद्धि करके नन्त में कम-सागरपी कन और ज्ञान का विरोध भले ही हो, संन्यास लेना चाहिये। चित्तशुदि जगते पर रिसान कम और ज्ञान के बीच ही या पूर्व प्रायु में हो जाव, तो गृह- बिलाल पिराध नहीं । इसलिये चित स्थान के कर्म करते रहने की भी माव- की शुद्धि के पश्चात् भी फलाशा का त्याग श्यकता नहीं है। कर्म का स्वल्पतः त्याग कर निष्काम झुन्दि से जगन के संग्रहार्य करना ही सचा संन्यास-मान है। चानुवंग सब कर्म धानरान्त जारी रसो। यही सबा संन्यास है। फर्म का स्वल्पतः त्याग करना कभी भी उचित नहीं और शक्य नी नहीं। (११) कर्मसन्यास ले चुकने पर भी. (1)ज्ञान प्राति के पश्चात् फलाणा- शम-दन बादिक धर्म पालत जाना त्याग-रूप संन्यास ले कर, शम-दम चाहिये। सादिक धनों के सिवा आलापन्य राष्टि से मात धोनेवाले सभी धनों का पालन किया करे । और, इस शन अर्याद शान्तवृत्ति ले ही, शान से प्रात समस्त कर्म, लोकसंग्रह के निमित्त मरण पर्यन्त करता जाब निष्काम कर्म न छोड़े।
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