पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३९

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२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । एक धार और गीता सुनें । तुरन्त अर्जुन ने विनती की "महाराज! अपने जो उपदेश मुझे युद्ध के प्रारंभ में दिया था उसे मैं भूल गया हूँ, कृपा करके एक बार और बतलाइये ।" तय श्रीकृष्ण भगवान् ने उत्तर दिया कि-" उस समय मैंने अत्यन्त योगयुक्त अंतःकरण से उपदेश किया था। अब सम्भव नहीं कि मैं बसा ही सपदेश फिर कर सकूँ ।" यह वात अनुगीता के प्रारंभ (मभा. अश्वमेघ. अ. १६. श्लो.१०-१३)में दी हुई है। सच पूछो तो भगवान् श्रीकृष्णाचंद्र के लिये कुछ भी असं- भव नहीं है, परन्तु उनके सक कथन से यह बात अच्छी तरह मालूम हो सकती है किगीता का महत्त्व कितना अधिक है। यह ग्रंय, वैदिक धर्म के भिन्न भिन्न संप्रदायों में, वेद के समान, आज करीव ढाई हज़ार वर्षसे, सर्वमान्य तथा प्रमाणस्वरूप हो रहा है। इसका कारण मी उक्त ग्रन्थ का महत्व ही है। इसी लिये गीता-ध्यान में इस स्मृतिकालीन ग्रंथ का अलंकारयुक्त, परन्तु यथार्य वर्णन इस प्रकार किया गया है:- सवापनिपदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः । पार्थी वत्सः सुधीर्मोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ॥ अर्थात् जितने उपनिपद् है वे मानो गौ है, श्रीकृष्ण स्वयं दूध दुहनेवाले (ग्वाला) हैं, बुद्धिमान् अर्जुन (उस गौ को पन्हानेवाला) भोक्ता बछड़ा (वत्स) है भीर जो दूध दुहा गया वही मधुर गीतामृत है। इसमें कुछ याश्चर्य नहीं कि हिन्दु स्थान की सय भाषाओं में इसके अनेक अनुवाद, टीकाएँ, और विवेचन हो चुके हैं। परन्तु नय से पश्चिमी विद्वानों को संस्कृत मापा का ज्ञान होने लगा है तब से ग्रीक, लेटिन, जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेजी सादि यूरोप की भापाओं में भी इसके अनेक अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। तात्पर्य यह है कि इस समय यह अद्वितीय ग्रंघ समस्त संसार में प्रसिद्ध है। इस ग्रंथ में सव उपनिपदों का सार आ गया है इसीसे इसका पूरा नाम श्रीमद्भगवद्गीता-उपनिषत् ' है। गीता के प्रत्येक अध्याय के अंत में जो अध्याय- समाति-दर्शक संकल्प है उसमें " इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपानिपत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे " इत्यादि शब्द हैं । यह संकल्प यद्यपि मूल ग्रंथ यह श्लोक का अर्थ है । महाभारत ( उ. ४८. ७-१ और २०२२; तथा वन. १२. ४४-४६ ) में लिखा है कि नर और नारायण ये दोनों ऋषि दो स्वरूपों में विभक्त साक्षात परमात्मा ही है और इन्हीं दोनों ने फिर अर्जुन तथा श्रीकृष्ण का अवतार लिया। सब भागवतधर्मीय ग्रंथों के आरंभ में इन्दी को प्रथम इसलिये नमस्कार करते हैं कि निष्काम-कर्म-युक्त नारायणीय तथा भागवत-धर्म को इन्होंने ही पहले पहल जारी किया था। इस शोक में कहीं कहीं व्यास' के बदल 'चैत्र पाठ भी है । परन्तु हमें यह युक्तिसंगत नहीं मालूम होता; क्योंकि, जैसे भागवत-धर्म के प्रचारक नर-नारायण को प्रणाम करना सर्वथा उचित है, वैसे ही इस धर्म के दो मुख्य ग्रंथों (महामारत और गीता ) के कर्ता ब्यासजी को भी नमस्कार करना उचित है । महाभारत का प्राचीन नाम 'जय' है (ममा. आ. ६२.२०)। ।