पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३८६

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संन्यास और फर्मयोग। ३४७ उसे छोड़ देते हैं, कि संसार इमै रुचता नहीं है-न कामयन्ते(पृ. ४.४.२२)। इससे वृहदारण्यकोपनिषद का यह अभिप्राय व्यक्त होता है, कि ज्ञान के पश्चात संन्यास फा लेना और न लेना अपनी अपनी खुशी की अर्थात् वैकल्पिक बात है, ब्रह्मज्ञान और संन्यास का कुछ नित्य सम्यन्ध नहीं और वेदान्तसूत्र में बृहदारण्यकोपनिषद् के इस वचन का अर्थ वैसा ही लगाया गया है (सू. ३. ४. १५) । शंकरा. चार्य का निश्चित सिद्धान्त है, कि ज्ञानोत्तर कर्म-संन्यास किये बिना मोक्ष मिल नहीं सकता, इसलिये अपने भाग्य में उन्हों ने इस मत की पुष्टि में सब उपनिपदों की अनुकूलता दिखलाने का प्रयत्न किया है । तथापि शंकराचार्य ने भी स्वीकार किया है कि जनक आदि के समान ज्ञानोत्तर भी अधिकारानुसार जीवन भर कर्म करते रहने से कोई क्षति नहीं है (पेस्. शांभा.३.३.३२; और गी. शांभा. २. एवं ३.२० देखो) । इससे स्पष्ट विदित होता है, कि संन्यास या सात मागवाली को भी ज्ञान के पश्चात् कर्म बिलकुल ही त्याज्य नहीं जचते; कुछ ज्ञानी पुरुषों को अपवाद मान अधिकार के अनुसार कर्म करने की स्वतंत्रता इस मार्ग में भी दी गई है। इसी अपवाद को और व्यापक बना कर गीता कहती है कि चातुर्वण्र्य के लिये विहित कर्म, ज्ञान-प्राप्ति हो चुकने पर भी, लोकसंग्रह के निमित्त कर्तव्य समझ फर, प्रत्येक ज्ञानी पुरुष को निष्काम बुद्धि से करना चाहिये । इससे सिद्ध होता है, कि गीताधर्म व्यापक हो तो भी उसका तत्व संन्यास मार्गवालों की दृष्टि से भी निदाप है और घेदान्तसूत्रों को स्वतंत्र रीति से पढ़ने पर जान पड़ेगा कि उनमें भी ज्ञानयुक्त कर्मयोग संन्यास का विकल्प समझ कर ग्राय माना गया है (वेसू. ३. ४. २६,३.१.३२-३५) *भय यह यतलाना आवश्यक है, कि निष्काम पुद्धि से ही क्यों न हो, पर जब मरण पर्यन्त कर्म ही करना है, तब स्मृतिग्रन्थों में वर्णित फर्मत्यागरूपी चतुर्ष प्राश्रम या संन्यास मात्रम की क्या दशा होगी। अर्जुन अपने मन में यही सोच रहा था, कि भगवान् कभी न कभी कहेंगे ही, कि फर्मत्यागरूपी संन्यास लिये यिना मोक्ष नहीं मिलता और तब भगवान् के सुख से ही युद्ध छोड़ने के लिये मुझे स्वतंत्रता मिल जावेगी। परन्तु जब अर्जुन ने देखा, कि सत्रहवें अध्याय के अन्त तक भगवान ने कर्मत्याग रूप सन्यास-प्राश्रम की यात भी नहीं की, वारंवार केवल यही उपदेश किया कि फलाशा को छोड़ दे तव पठा- रहवें अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने भगवान से प्रभ किया है, कि "तो फिर मुझे पतलामो, संन्यास और त्याग में क्या भेद है?" अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं " अर्जुन ! यदि तुम ने समझा हो, कि मैं ने इतने समय तक जो कर्मयोग मार्ग बतलाया है उसमें संन्यास नहीं है, तो वह समझ गलत वेदान्तसूत्र के इस अधिकरणका अर्थ शांकरभाष्य में कुछ निराला है । परन्तु 'विहि- तलाच्चभम कर्माणि ' (३. ४.३२ ) का अर्थ हमारे मत में ऐसा है, कि “शानी पुरुष आलमकर्म भी करे तो अच्छा है, क्योंकि वह विहित है। " सारांश, एमारी समझ से वेदान्तसूत्र में दोनों पक्ष स्वीकृत है, कि पानी पुरुष कर्म करे, चाहे न करे ।