गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल। यज्ञ-याग शादि कर्मों का फल स्वर्ग-प्राप्ति के सिवा दुसरा कुछ नहीं, उन्हें वह करे ही क्यों ? इसी से अठारहवें अध्याय के प्रारम्भ में इसी प्रश्न को उठा का भगवान् ने स्पष्ट निर्णय कर दिया है, कि " यज्ञ, दान, तप" श्रादि कर्म सदैव चित्तशुद्धि- कारक हैं, अर्थात् निष्काम-बुद्धि उपजाने और वढ़ानेवाले हैं। इसलिये ' इन्हें मी' (एतान्यपि) अन्य निष्काम कमी के समान लोकसंग्रहार्य ज्ञानी पुरुष को फलाशा और सङ्ग छोड़ कर सदा करते रहना चाहिये (गी. १८.६)। परमेश्वर को अर्पण कर इस प्रकार सच कर्म निष्काम बुद्धि से करते रहने से, व्यापक अर्थ में, यही एक बड़ा भारी यज्ञ हो जाता है और फिर इस यज्ञ के लिये जो कर्म किया जाता है वह बन्धक नहीं होता (गी. ४.२३), किन्तु सभी काम निष्काम-बुद्धि से करने के कारण यज्ञ से जो स्वर्ग-प्रतिरूप बन्धक फल मिलनेवाला था वह भी नहीं मिलता और ये सब काम मोक्ष के आड़े या नहीं सकते । सारांश, मीमांसकों का कर्मकाण्ड यदि गीता में कायम रखा गया हो, तो वह इस रीति से रखा गया है कि उससे स्वर्ग का भाना-जाना छूट जाता है और सभी कर्म निष्काम चुद्धि से करने के कारण अन्त में मान-प्राहि हुए विना नहीं रहती। ध्यान रखना चाहिये, कि मीमांसकों के कर्ममार्ग और गीता के कर्मयोग में यही महत्त्व का भेद है- दोनों एक नहीं है। यहाँ वतना दिया, कि भगवदगीता में प्रवृत्तिप्रधान भागवतधर्म या कर्मयोग ही प्रतिपाद्य ई, और इस कर्मयोग में तथा मीमांसकों के कर्मकाण्ड में कौनसाभेद है। अव ताविक दृष्टि से इस बात का थोड़ा सा विचार करते हैं कि गीता के कर्म- योग में और ज्ञानकाण्ड को ले कर स्मृतिकारों की वर्णन की हुई आश्रम-स्यवस्था में क्या भेद है । यह भेद बहुत ही सूक्ष्म है और सच पूछो तो इसके विषय में वाद करने का कारण भी नहीं है। दोनों पक्ष मानते हैं, कि ज्ञान-प्राप्ति होने तक चित्त की शुद्धि के लिये प्रथम दो आश्रमों (ब्रह्मचारी और गृहस्य) के कृत्य सभी को करना चाहिये । मतमेद सिर्फ इतना ही है, कि पूर्ण ज्ञान हो चुकने पर कर्म करे या संन्यास ले ले । सम्भव है कुछ लोग यह समझे कि सदा ऐसे ज्ञानी पुरुष किसी समाज में थोड़े ही रहेंगे, इसलिये इन थोड़े से ज्ञानी पुरुषों का कर्म करना या न करना एक ही सा है, इस विषय में विशेष चर्चा करने की आवश्यकता नहीं। परन्तु यह समझ ठीक नहीं क्योंकि ज्ञानी पुरुष के वर्ताव को और लोग प्रमाण मानते हैं और अपने अन्तिम साध्य के अनुसार ही मनुष्य पहले से. आदत डालता है, इसलिये लौकिक दृष्टि से यह प्रश्न अत्यंत महत्व का हो जाता है कि "ज्ञानी पुरुष को क्या करना चाहिये ? " स्मृतिग्रन्थों में कहा तो है, कि ज्ञानी पुरुष अन्त में संन्यास ले लेपरन्तु अपर कह आये है कि सात मार्ग के अनुसार ही इस नियम के कुछ अपवाद भी हैं। उदाहरण लीजियेबृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञ- वल्क्य ने जनक को ब्रह्मज्ञान का बहुत उपदेश किया है। पर उन्हों ने जनक से यह कहीं नहीं कहा, कि " अब तुम राजपाट छोड़ कर संन्यास ले लो"। उलटा यह कहा है, कि जो ज्ञानी पुरुष ज्ञान के पश्चात् संसार को छोड़ देते हैं, वे इसलिये
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