संन्यास और कर्मयोग । ३४५ प्रगोतामों के ये सिद्धान्त गीता को मान्य हैं कि ज्ञान के यिना मोक्ष-प्राप्ति नहीं होगी और यज्ञ-याग आदि कर्मों से यदि यहुत सुना तो स्वर्ग-प्राप्ति हो जाती है (मुंड. १. २. १०; गी. २. ४१-४५)। परन्तु गीता का यह भी सिद्धान्त है, कि सृष्टि-क्रम को जारी रखने के लिये यज्ञ अथवा कर्म के चक्र को भी कायम रखना चाहिये कर्मों को छोड़ देना निरा पागलपन या मूर्खता है । इसलिये गीता का उपदेश ई. कि यज्ञ-याग आदि श्रीत फर्म अथवा चातुर्वर्य प्रादि व्यावहारिक कर्म अज्ञानपूर्वक श्रद्धा से न करके ज्ञान वैराग्य युक्त बुद्धि से निरा कर्तव्य समझ कर करो इससे यह चक्र भी नहीं बिगड़ने पायगा और तुम्हारे किये हुए कर्म मान के भाड़े भी नहीं प्रावेंगे। कहना नहीं होगा कि ज्ञानकागद और कर्मकाण्ड (संन्यास और कर्म) का मेल मिलाने की गीता की यह शैली स्मृतिकर्ताओं की अपेक्षा अधिक सरस है। क्योंकि व्यष्टिरुप प्रात्मा का कल्याण यत्किञ्चित् भी न घटा कर उसके साथ सृष्टि के समष्टिरूप आत्मा का कल्याण भीगीतामार्ग से साधा जाता है।मीमां- सककहते हैं, कि कर्म अनादि और वेद-प्रतिपादित है इसलिये तुम्हें ज्ञान न हो तो भी उन्हें करना ही चाहिये । कितने ही (सब नहीं) उपनिषत्प्रगोला फर्मों को गौण मानते हैं और यह कहते हैं या यह मानने में कोई क्षति नहीं कि निदान उनका झुकाय ऐसा ही है कि कमी को वैराग्य से छोड़ देना चाहिये । और, स्मृति- कार, आयु के भेद अर्थात् पाश्रम-व्यवस्था से उक्त दोनो मतों की इस प्रकार एक- वाक्यता करते हैं, कि पूर्व आश्रमों में इन कमी को करते रहना चाहिये और चित्तशुद्धि हो जाने पर पुढ़ापे में वैराग्य से सब कर्मों को छोड़ कर संन्यास ले लेना चाहिये । परन्तु गीता का मार्ग इन तीनों पायों से भिन है। शान और काम्य कर्म के बीच यदि विरोध हो तो भी ज्ञान और निष्काम कर्म में कोई विरोध नहीं। इसी लिये गीता का कथन है, कि निष्काम-युद्धि से सब कर्म सर्वदा करते रहो, उन्हें कभी मत छोड़ो। अब इन चारों मतों की तुलना करने से देख पड़ेगा, कि ज्ञान होने के पहले कर्म की सावश्यकता सभी को मान्य है परन्तु उपनिपदों और गीता फा कथन है कि ऐसी स्थिति में श्रद्धा से किये हुए कर्म का फल स्वर्ग के सिवा दूसरा कुछ नहीं होता । इसके प्रागे, अर्थात् ज्ञान-प्राप्ति हो चुकने पर-कर्म किये जावें या नहीं -इस विषय में, उपनिपत्कत्तांत्रों में भी मतभेद है । कई एक उपनिपत्कर्ताओं का मत है कि ज्ञान से समस्त काम्य बुद्धि का हास हो चुकने पर जो मनुप्य मोक्ष का अधिकारी हो गया है, उसे केवल स्वर्ग की प्राप्ति करा देनेवाले काम्य कर्म करने का कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता; पान्तु ईशावास्य आदि दूसरे कई एक उपनिपदों में प्रतिपादन किया गया है, कि मृत्युलोक के व्यवहारों को जारी रखने के लिये कर्म करना ही चाहिये। यह प्रगट है, कि उपनिपदों में वर्णित इन दो मार्गों में से, दूसरा मार्ग ही गीता में प्रतिपादित है (गी.५.२) । परन्तु यद्यपि यह कहें कि मोक्ष के अधिकारी ज्ञानी पुरुप को निष्कामबुद्धि से लोकसंग्रहार्थ सय म्यवहार करना चाहिये; तथापि इस स्थान पर यह प्रश्न आप ही होता है, कि जिन गी. र.४४
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