पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३८३

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. ३४४ गीतारहस्य अयवा कर्मयोगशाल। जनक-श्रीकृष्ण प्रादि क्षत्रियों के ही नहीं हैं। प्रत्युत उनमें वसिष्ठ, जगीषव्य और व्यास प्रभृति ज्ञानी ब्राह्मणों का भी समावेश रहता है। यह न भूलना चाहिये, कि यद्यपि गीता में कर्ममार्ग ही प्रतिपाद्य है, तो मी निरे कर्म अर्थात ज्ञानरहित कर्म करने के मार्ग को गीता मोक्षपद नहीं मानती। ज्ञानरहित कर्म करने के भी दो भेद हैं । एक तो दम्भ से या आसुरी बुद्धि से कर्म करना, और दुसरा श्रद्धा से । इनमें दम्म के मार्ग या आसुरी मार्ग को गीता ने (१६. १६ और १७. २८) और मीमांसकों ने भी गी तथा नरकप्रद माना है। "एवं ऋग्वेद में भी, अनेक स्थलों पर श्रद्धा की महत्ता वर्णित है (ऋ. १०. १५३; १. १३.२ और २. १२.५) । परन्तुं दूसरे मार्ग के विषय में अर्थात् ज्ञानव्यति- रिक्त किन्तु शास्त्रों पर श्रद्धा रख कर कर्म करने के मार्ग के विषय में मीमांसको का कहना है कि परमेश्वर के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान न हो तो भी शास्त्रों पर विश्वास रख कर केवल श्रद्धापूर्वक. यज्ञ-याग आदि कर्म मरण पर्यन्त करते जाने से अन्त में मोक्ष ही मिलता है । पिछले प्रकारण में कह चुके हैं, कि कर्मकाण्ड रूप से मीमांसकों का यह मार्ग बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है । वेद- संहिता और ब्राह्मणों में संन्यास आश्रम प्रावश्यक कहीं नहीं कहा गया है। उलटा जमिनि ने वेदों का यही स्पष्ट मत बतलाया है, कि गृहस्थाश्रम में रहने से ही मांड मिलता है (वैसू. ३. ४. १७-२० देखो) और उनका यह कथन कुछ निराधार भी नहीं। क्योंकि कर्मकाण्ड के इस प्राचीन मार्ग को गौण मानने का प्रारम्भ उप- निपदों में ही पहले पहल देखा जाता है । यद्यपि उपनिषद् वैदिक हैं, तथापि उनके विषय प्रतिपादन से प्रगट होता है, कि वे संहिता और ब्राह्मणों के पीछे के हैं। इसके मानी यह नहीं, कि इसके पहले परमेश्वर का ज्ञान हुआ ही न था । हाँ; उपनिषत्काल में ही यह मत पहले पहल अमल में अवश्य आने लगा, कि मोन पाने के लिये ज्ञान के पश्चात् वैराग्य से कर्मसंन्यास करना चाहिये और इसके पश्चात् संहिता एवं ब्राह्मणों में वर्णित कर्मकाण्ड को गौणत्व पा गया। इसके पहले कर्म ही प्रधान माना जाता था । उपनिषत्काल में वैराग्य युक्त ज्ञान अर्थात् संन्यास की इस प्रकार वढ़ती होने लगने पर; यज्ञ-याग प्रभृति कर्मों की ओर या चातुर्वण्र्य धर्म की ओर भी ज्ञानी पुरुष यों ही दुर्लक्ष करने लगे और तभी से यह समझ मन्द होने लगी, कि लोकसंग्रह करना हमारा कर्तव्य है। स्मृतिप्रणेताओं ने अपने अपने ग्रन्थों में यह कह कर, कि गृहस्थाश्रम में यज्ञ-याग चादि श्रौत या चातु- वर्य के स्मार्त कर्म करना ही चाहिये, गृहस्थाश्रम की वड़ाई गाई है सही; परन्तु स्मृतिकारों के मत में भी, अन्त में वैराग्य या संन्यास आश्रम ही श्रेष्ठ माना गया है। इसलिये उपनिषदों के ज्ञान प्रभाव से कर्मकाण्ड को जो गौणता प्राप्त हो गई थी उसको हटाने का सामर्थ्य स्मृतिकारों की आश्रम-व्यवस्था में नहीं रह सकता था। ऐसी व्यवस्था में ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्ड में से किसी को गौण न कह कर, भक्ति के साथ इन दोनों का मन कर देने के लिये, गीता की प्रवृत्ति हुई है । उपनिषत-