३४० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। रहते हैं । अतः ज्ञान से जव उनका यह सामथ्र्य पूर्णवस्या को पहुँचता है, तमी समाज को छोड़ जाने की स्वतंत्रता ज्ञानी पुरुष को रहने देने से, उस समाज की ही अत्यन्त हानि हुआ करती है, जिसकी भलाई के लिये चातुर्वगर्य-व्यवस्था की गई है। शरीर-सामर्थ्य न रहने पर यदि कोई अशक्त मनुष्य समाज को छोड़ कर वन में चला जाये तो बात निराली ई-उससे समाज की कोई विशेष हानि नहीं होगी। जान पड़ता है कि संन्यास-पात्रम को बुढ़ापे की मर्यादा से लपेटने में मनु का हेतु भी यही रहा होगा । परन्तु, ऊपर कह चुके हैं, कि यह श्रेयस्कर मर्यादा व्यवहार से जाती रही । इसलिये • कर्म कर' और 'कर्म छोड़ ' ऐसे विविध वेद- वचनों का मेल करने के लिये ही यदि स्मृतिकर्ताओं ने भाश्रमों की बढ़ती हुई श्रेणी बाँधी हो, तो मी इन भिन्न मिस येदवाक्यों की एकवाक्यता करने का स्मृतिकारों की घरावरी का ही-सौर तो क्या उनसे भी अधिक-निर्विवाद अधिकार जिन भगवान श्रीकृष्ण को है, उन्हीं ने जनक प्रभृति के प्राचीन ज्ञान-कर्म-समुच. यात्मक मार्ग का भागवत-धर्म के नाम से पुनरजीवन और पूर्ण समर्थन किया है। भागवतधर्म में केवल अध्यात्म विचारों पर ही निर्भर न रह कर वासुदेव-मकि रूपी सुलम साधन को भी उसमें मिला दिया है । इस विषय पर भागे तेरहवें प्रकरण में विस्तारपूर्वक विवेचन किया जावेगा। भागवत-धर्म मचिप्रधान भले ही हो, पर उसमें भी जनक के मार्ग का यह महन्व-पूर्ण तत्व विद्यमान है, कि परमेश्वर का ज्ञान पा चुकने पर कर्म-त्यागरूप संन्यास न ले, केवल फलाशा छोड़ कर ज्ञानी पुरुप को भी लोकसंग्रह के निमित्त समस्त व्यवहार यावजीवन निष्काम बुदि से करते रहना चाहिये; अतः कर्मदृष्टि से ये दोनों मार्ग एक से अर्थात् ज्ञान-कर्म- समुच्चयात्मक या प्रवृत्ति प्रधान होते हैं। साक्षात् परमा के ही अपवार, नर और नारायण ऋपि, इस प्रवृत्तिप्रधान धर्म के प्रथम प्रवर्तक हैं और इसी से इस धर्म का प्राचीन नाम ' नारायणीय धर्म है। ये दोनों ऋपि परम ज्ञानी थे और लोगों को निष्काम कर्म करने का उपदेश देनेवाले तथा स्वयं करनेवाले थे. (ममा. उ. ४८.२.); और इसी से महाभारत में इस धर्म का वर्णन इस प्रकार किया गया है:- “प्रवृत्ति-लक्षणश्चैव धर्मो नारायणात्मक: "(ममा. शां. ३४७.८१), अथवा "प्रवृत्ति-लक्षणं धर्म ऋपिनारायणोऽयवात् "-नारायण ऋषि का प्रारम्भ किया हुआ धर्म भामरणान्त प्रवृत्तिप्रधान है (ममा. शां. २१७.२) । मागवत में स्पष्ट कहा है कि यही सात्वत या भागवतधर्म है और इस साचत या भूब मागवतधर्म का स्वरूप नकर्म्यलक्षण ' अर्थात् निष्काम प्रवृत्तिप्रधान या (भाग. १.३.८ और ११.१.६ देखो)। अनुगीता के इस श्लोक से " प्रवृत्तिलवणो योगः ज्ञानं संन्यासलक्षणम् " प्रगट होता है, कि इस प्रवृत्ति मार्ग का ही एक और नाम योग ' था (ममा. अध. ४३. २५)। और इसी से नारायण के भव. वार श्रीकृष्ण ने, नर के अवतार अर्जुन को गीता मैजिस धर्मका उपदेश दिया है, उसको गीता में ही योग ' कहा है। आज कल कुछ लोगों की समझ है कि
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