संन्यास और कर्मयोग। म्तक रोग छूटे बिना सुख नहीं है (शां. १७४. ६५ सौर ५८)। जायाल और सह- दारण्यक उपनिषदों के वचनों के अतिरिक्त कैवल्य पोर नारायणोपनिषद् में पाग है, कि "न फर्मणा प्रजया धनेन त्यागेनफे अमृतत्यमानशुः" - कर्म से, प्रजा से सपया धन से नहीं, किन्तु त्याग (या न्यास से) कुन पुरुप मोक्ष प्राप्त करते हैं (कै. १. २ नारा. ज. १२.३. और०८ देसो) । यदि गीता का यह सिद्धान्त है, कि ज्ञानी पुरुष को भी अन्त तक फर्म ही करते रहना चाहिये तो अब यतलाना चाहिये कि इन वचनों की व्यवस्था कैसी फ्या जगाई जाये । इस शंका के होने सही अर्जुन ने अठारहवें अध्याय के पारम्भ में भगवान् से पूछा है कि " तो अय मुझे सलग सलग यतनामी, कि संन्यास के गानी पया , और त्याग से क्या समा" (१८. १)। यह देखने के पहले, कि भगवान् ने इस प्रश्न का क्या उत्तर दिया, स्मृति- ग्रन्धों में प्रतिपादित इस शाश्रम-मार्ग के अतिरिका एक दूसरे तुल्ययल के वैदिक मार्ग का भी यहीं पर थोड़ा सा विचार करना आवश्यक है। ममचारी, गृहस्य, पानप्रसार सन्त में संन्यासी, इस प्रकार प्राप्रमों की इन चार चढ़ती हुई सीढ़ियों के जीने को ही स्मात' अर्थात् सिकारों का प्रतिपादन किया दुक्षा मार्ग' कहते हैं। 'फर्म फर' और 'कर्म छोड़-पेद की ऐसी जो दो प्रकार की साशाएँ, उनकी एकवाक्यता दिखलाने के लिये प्रायु के भेद के अनुसार साश्रमों की व्यवस्था स्मतिकत्रिों ने की है और फर्मों के स्वरू- पतः संन्यास ही को यदि अन्तिम ध्येय मान ले, तो उस ध्येय की सिद्धि के लिये स्मृतिकारों के निर्दिष्ट किये हुए पायु बिताने के चार सीढ़ियों वाले इस पाश्रममार्ग को साधन रुप समझ कर पनुचित नहीं कह सकते । वायुप्य बिताने के लिये इस प्रकार चढ़ती दुई सीढ़ियों की व्यवस्था से संसार के व्यवहार का लोप न हो कर यद्यपि वैदिक कर्म और पीपनिपदिक ज्ञान का मेल हो जाता है तपापि अन्य तीनों पाश्रमों का प्रसदाता गृइस्याश्रम ही होने के कारण, मनुस्मृति और महाभारत में मी, अन्त में उसका ही महत्व स्पष्टतया स्वीकृत हुआ है- यथा मातरमाश्रित्य सर्व जीवन्ति जन्तवः । एवं गाईस्यमाश्रित्य वर्तन्त एतराश्रमाः ॥ " माता के (पृथ्वी के) प्राश्रय से जिस प्रकार सय जन्तु जीवित रहते हैं, उसी प्रकार गृहस्थाश्रम के मासरे अन्य प्राश्रम हैं (शा. २६८.६, और मनु. ३.७७ देखो)। मनु ने तो भन्यान्य माश्रमों को नदी और गृहस्थाश्रम को सागर कहा है(मनु. ६.६०. मभा. शा २६५. ३६) । जय गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता इस प्रकार गिर्विवाद है, तब उसे छोड़ कर कर्म-संन्यास' करने का उपदेश देने से लाभ ही क्या है? क्या ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी गृहस्थाश्रम के कर्म करना भशक्य है? नहीं तो फिर इसका क्या अर्थ है, कि ज्ञानी पुरुप संसार से निवृत्त हो? घोड़ी यदुत स्वार्थशुद्धि से पांच करनेवाले साधारण लोगों की अपेक्षा पूर्ण निष्काम सुवि से व्यवहार करनेवाले ज्ञानी पुरुप जोकसंग्रह करने में अधिक समर्थ और पान
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