. संन्यास और फर्मयोग। "चार प्राश्रम रूपी धार सीढ़ियों का यह जीना मन्त में महापद को जा पहुंचा। इस सीने से, अर्थात् एक पाश्रम से ऊपर के दूसरे आश्रम में इस प्रकार चढ़ने जाने पर, अन्त में मनुष्य मामलोफ में यडप्पन पाता है " (शां. २५. १५), साग इसम का वर्णन किया है- कपाय पाचयित्वास अणिस्मानेषु च निम्। प्रयजेच्च परं स्थानं परिवाज्यमनुत्तमम् ।। इस जीने की तीन सीढ़ियों में मनुष्य अपने किरिया (पाप) का अयार रवापरा. यगा आत्मबुद्धि का अथवा विपयासक्ति रूप दोष का शीघ्रधीक्षय पर फिर संन्यास ले पारिवाज्य अर्यात संन्यास ही सब में श्रेर स्थान है" (शां. २४४.३) 1एक प्राश्रम से दूसरे पाश्रम में जाने का यह सिलसिला मनुस्मृति में भी ६ (मनु. ६.३४)। परन्तु यह यात मनु के ध्यान में भरद्री तरह श गई घी, कि इनमें से अन्तिम अर्थात् संन्यास मानम की ओर लोगों की फिशूल प्रवृत्ति होने से संसार का मर्तृत्व नष्ट हो जायगा और समाज भी पंगु हो जायेगा। इसी से मनु ने स्पष्ट मर्यादा बना दी है, कि मनुष्य पूर्वाश्रम में गृइधर्म के अनुसार पराक्रम और लोकसंग्रह के सब कर्म अवश्य करे इसके पश्चात्- गृहस्पस्तु यदा पद्धतीपलितमात्मनः । अपत्यस्यैव चापत्यं तदारणं समागत् ॥ "जय शरीर में रियों पड़ने लगे और नाती का मुंह देखने सत्र गुहा बानमा हो कर संन्यास ले ले (मनु.६.२)। इस मयादा का पालन करना चाहिये, क्योंकि मनुस्मृति में ही लिखा है कि प्रत्येक मनुष्यजन्म के साप ही अपनी पीठ पर अपियों, पितरों और देवताओं के (तीन) या (कर्तव्य) ले कर उत्पस तुम्मा । इस. लिये वेदाध्ययन से ऋषियों का, पुत्रोत्पादन से पितरों का पार गशनामों से देवता आदिकों का, इस प्रकार, पहले इन तीनों कों को गुफागे बिना मनुष्य संसार छोड़ कर संन्यास नहीं ले सकता । यदि यह ऐसा करेगा (समान संन्यास लेगा), तो जन्म से ही पागे तुप फर्जे को येबारु न करने के कारण वह wधोगति को पहुँचेगा (मनु. ६. ३५-३७ और पिछले प्रकरण का ते. सं. मंत्र देशो) । प्राचीन हिन्दूधर्मशारा के अनुसार याप का फर्स, मियाद गुजर जाने का सवय न पतला कर, घेटे या नाती को भी जुकाना पड़ता था और किसी का कर्ज चुकाने से पहले ही मर जाने में बड़ी दुर्गति मानी जाती थी; इस बात पर ध्यान देने से पाठक सहज ही जान जायेंगे, कि जन्म से ही प्राक्ष और उलिखित महाय के सामाजिक कल्य को 'प्राण' कहने में हमारे शासकारों का क्या हेतु था! कालिदास ने रघुवंश में कहा है, कि स्मृतिकारों की बतलाई हुई इस मर्यादा के अनुसार सूर्यवंशी राजा लोग चलते थे और जब बेटा राज करने योग्य हो जाता तब उसे गही पर बिठला कर (पहले से ही नहीं) स्वयं गृहस्थाश्रम से निवृत्त होते थे (रघु. ७.६८)। गी.र.४३
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