पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३७४

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संन्यास और कर्मयोग। ३३५ तो राजा के द्वारा योग्य रक्षण होने पर भी लोकसंग्रह का काम पूरा न हो सकेगा; अथवा यदि रेल का कोई अदना झण्डीवाला या पाइंट्समेन अपना कर्तव्य न करे, तो जो रेलगाड़ी आज कल वायु की चाल से रात दिन येखटके दौड़ा करती है, यह फिर ऐसा कर न सकेगी। अतः वेदान्तसूत्रकर्ता की ही उलिखित युक्ति-प्रयुक्तियों से श्रय यह निप्पस हुश्रा, कि व्यास मभूति बड़े बड़े अधिकारियों कोही नहीं, प्रत्युत अन्य पुरपी को भी-फिर चाहे वह राजा हो या रक्ष लोकसंग्रह करने के लिये जो छोटे बड़े अधिकार यथान्याय प्राप्त हुए हैं, उनको ज्ञान के पश्चात् भी छोड़नहीं देना चाहिये, किन्तु उन्ही अधिकारों को निकाम पुन्दि से अपना कर्तव्य समझा ययाशक्ति, ययामति और यथासम्भव जीवनपर्यंत करते जाना चाहिये । यह कहना ठीक नहीं कि मैं न सही तो कोई दूसरा उस काम को करेगा । क्योंकि ऐसा करने से समूचे काम में जितने पुरुषों की आवश्यकता है, उनमें से एक घट जाता है और संघशक्ति कम ही नहीं हो जाती, बल्कि शानी पुरुप उसे जितनी अच्छी रीति से करेगा, उतनी अच्छी रीति से और के द्वारा उसका ना शक्य नहीं; फलतः इस हिसाब से लोकसंग्रह भी अधूरा ही रह जाता है । इसके अतिरिक्त, कह पाये हैं, कि शानी पुरुष के कर्मत्यागरूपी उदाहरण से लोगों की पुन्द्रि भी बिगड़ती है। कभी कभी संन्यासमार्गवाले कहाकरते हैं, कि कर्म से चित्त की शुद्धि हो जाने के पश्चात् अपने आत्मा की मोद-प्राति से ही संतुष्ट रहना चाहिये, संसार का नाश भले ही हो नावे पर उसकी कुच परवा नहीं करना चाहिये-"लोकसंग्रहधर्मव नैव कुर्याज फारयेत् " अर्थात् न तो लोकसंग्रह करे और न कराये (ममा. अध. अनुगीता. ४६. ३६)। परन्तु ये लोग व्यास प्रमुख महात्मामों के व्यवहार की जो उपपत्ति बतलाते हैं उससे, और वसिष्ठ एवं पशिख प्रवृति ने राम तथा जनफ आदि को अपने अपने अधिकार के अनुसार समाज के धारण-पोपण इत्यादि के काम ही मरण पर्यंत करने के लिये जो कहा है उससे, यही प्रगट होता है कि कर्म छोड़ देने का संन्यासमार्गवालों का उपदेश एकदेशीय है- सर्वथा सिद्ध होनेवाला शास्त्रीय सत्य नहीं । अतएव कहना चाहिये, कि ऐसे एकपक्षीय उपदेश की और ध्यान न दे कर स्वयं भगवान के ही उदाहरण के अनुसार ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् भी अपने अधिकार को परख कर, तदनुसार लोकसंग्रह-कारक फर्म जीवन भर करते जाना ही शास्त्रोक्त और उत्तम मार्ग 2 तथापि इस लोकसंग्रह को फलाशा रख कर न करे । क्योंकि लोकसंग्रह की ही क्यों न हो; पर फलाशा रखने से, कर्म यदि निष्फल हो जाय तो, दुःख हुए बिना न रहेगा । इसी से. मैं ‘लोकसंग्रह करूँगा' इस अभिमान या फलाशा की बुद्धि को मन में न रख कर लोकसंग्रह भी केवल कर्तव्य बुद्धि से ही करना पड़ता है। इसलिये गीता में यह नहीं कहा कि लोकसंग्रहार्थ' अर्थात लोकसंग्रहरूप फल पाने के लिये कर्म करना चाहिये; किन्तु यह कहा है कि लोकसंग्रह की भोर दृष्टि दे कर (संपश्यनू ) तुझे कर्म करना चाहिये लोकसंप्राइमेवापि