संन्यास और कर्मयोग। ३३३ अभिप्राय भी ऐसा ही है। यह पहले कहा ही जा चुका है, कि इस चातुर्पपर्यधर्म में, से यदि कोई एक भी धर्म दूध जाय तो समाज उतना ही पंगु हो जायगा और अन्त में उसके नाश हो जाने की भी सम्भावना रहती है। स्मरण रहे कि अयोगों के विभाग का यह व्यवस्था एक ही प्रकार का नहीं रहती । प्राचीन यूनानी तत्वज्ञ टेटो ने एतद्विषयक अपने अन्य में और प्राचीन फ्रेश शास्त्रज्ञ कौंट ने अपने “प्राधिभौतिक तत्त्वज्ञान " में, समाज की स्थिति के लिये जो प्यवस्था सुचित की है, वह यद्यपि चातुर्वर्य के सःश ; तथापि उन मन्यों को पढ़ने से कोई भी जान सकेगा, कि उस व्यवस्था में वैदिक धर्म की चातुर्वण्र्य व्यवस्था से कुछ न कुछ भिनता है। इनमें से कौन सी समाजव्यवस्था प्रधी है, अथवा यह अच्छापन सापेक्षा है, और युगमान से इसमें कुछ फेर फार हो सकता है या नहीं, इत्यादि अनेक प्रश्न यहाँ उठते है और आज कल तो पश्चिमी देशों में 'लोकसंग्रह' पफ माइप का शारस बन गया है। परंतु गीता का तात्पर्य-निर्गाय ही हमारा प्रस्तुत विषय, इसलिये कोई पावश्यक नहीं कि यहाँ उन प्रशों पर भी विचार करें। यह यात निर्विवाद है, कि गीता के समय में चातुर्वर्य की व्यवस्था जारी थी और लोक- संग्रह करने के हेतु से ही यह प्रवृत्त की गई थी । इसलिये गीता के 'लोक- संग्रह' पद का अर्थ यही होता है, कि लोगों को प्रत्यक्षा दिखला दिया जाये कि चातुर्पर्य की व्यवस्था के अनुसार अपने अपने प्राप्त कर्म निष्काम पुदि से किस प्रकार करना चाहिये । यही बात मुख्यता से यहाँ यतमानी । ज्ञानी पुरुप समाज के न सिर्फ नेत्र हैं, पर गुरु भी है । इससे श्राप की साप सिद्ध हो जाता है कि उपर्युक्त प्रकार का लोकसंग्रह करने के लिये, उन्हें अपने समय की समाजव्यवस्था में यदि कोई न्यूनता अंचे, तो ये उसे श्वेतकेतु के समान देश- कालानुरूप परिमार्जित करें और समाज की स्थिति तथा पोपणशक्ति की रक्षा करते हुए उसको उतावस्या में ले जाने का प्रयत्न करते रहें । इसी प्रकार का लोक. संग्रह करने के लिये राजा जनक संन्यास न ले कर जीवन पर्यन्त राज्य करते रहे और मनु ने पहला राजा याना स्वीकार किया एवं इसी कारण से "स्वधर्ममपि चायेदय न विकम्पितुमईसि " (गी. २. ३१)-स्वधर्म के अनुसार जो पर्म प्राप्त हैं, उनके लिये रोना तुझे उचित नहीं-; अथवा "स्वभावनिगतं फर्म फुपंक्षमते फिल्पिपम् " (गी. १८.४७) स्वभाव और गुणों के अनुरूप निश्चित चातुर्वरार्यव्यवस्था के अनुसार नियमित कर्म करने से तुझे कोई पाप नहीं लगेगा-, इत्यादि प्रकार से चातुर्य-कर्म के अनुसार प्राप्त हुए युद्ध को करने के लिये गीता में पारयार अर्जुन को उपदेश किया गया है। यह कोई भी नहीं कहता, कि परमेश्वर का यथाशक्ति ज्ञान प्राप्त न करो। गीता का भी सिद्धान्त है, कि इल ज्ञान को सम्पादन करना ही मनुष्य का इस जगत में इतिकर्तव्य है। परन्तु इसके आगे बढ़ कर गीता का विशेष कथन यह है कि, अपने मात्मा के कल्याण में ही समष्टिरूप शात्मा के कल्याणार्थ यथाशक्ति प्रयत्न करने का भी समावेश होता है, इसलिये लोकसंग्रह करना ही महात्मय-
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