संन्यास और कर्मयोग। ३२९ (गी. ३. २०)-लोकसंग्रह की ओर दृष्टि दे कर भी तुझे कर्म करना ही उचित है। लोकसंग्रह का यह अर्थ नहीं कि कोई ज्ञानी पुरुष मनुष्यों का केवल जमघट फरे' अथवा यह अर्थ नहीं कि स्वयं कर्मत्याग का अधिकारी होने पर भी इस लिये कर्म करने का ढोंग करे कि अज्ञानी मनुष्य कहीं कर्म न छोड़ ये और उन्हें अपनी (ज्ञानी पुरुप की) कर्म-तत्परता अच्छी लगे। क्योंकि, गीता का यह सिखलाने का हेतु नहीं, कि लोग अज्ञानी या मूर्ख बने रहे, अथवा उन्हें ऐसे ही बनाये रखने के लिये ज्ञानी पुरुष कर्म करने का डॉग किया करे । ढोंग तो दूरही रक्षा परन्तु ' लोग तेरी अपकीर्ति गावेंगे' (गी. २.३४) इत्यादि सामान्य लोगों को जॅचनेवाली युक्तियों से भी जब अर्जुन का समाधान न हुआ, तय भगवान् उन युक्तियों से भी अधिक जोरदार और तत्वज्ञान की दृष्टि से अधिक बलवान् कारण अब कह रहे हैं। इसलिये कोश में जो संग्रह' शब्द के जमा करना, इकट्ठा करना, रखना, पालना, नियमन करना प्रमृति अर्थ हैं, उन सब को यथासम्भव ग्रहण करना पड़ता है और ऐसा करने से लोगों का संग्रह करना' यानी यह अर्थ होता है कि उन्हें एकत्र सम्बद्ध कर इस रीति से उनका पालन-पोपण और नियमन करे, कि उनकी परस्पर अनुकूलता से उत्पन्न होनेवाला सामर्थ्य उनमें श्रा जावे, एवं उसके द्वारा उनकी सुस्थिति को स्थिर रख कर उन्हें श्रेयःप्राप्ति के मार्ग में लगा दे।" 'राष्ट्र का संग्रह ' शब्द इसी अर्थ में मनुस्मृति (७. १४) में आया है और शाकरमाप्य में इस शब्द की व्याख्या यों ई-" लोकसंग्रह-लोकस्यो- न्मार्गप्रवृत्तिनिवारणम् ! " इससे देख पड़ेगा कि संग्रह शब्द का जो हम ऐसा अर्थ करते हैं अज्ञान से मनमाना बर्ताव करनेवाले लोगों को. ज्ञानवान् बना कर सुस्थिति में एकल रखना और आत्मोन्नति के मार्ग में लगाना-वह अपूर्व या निराधार नहीं है। यह संग्रह शब्द का अर्थ हुआ; परन्तु यहाँ यह भी बतलाना चाहिये, कि 'लोफसंग्रह' में 'लोक' शब्द केवल मनुष्यवाची नहीं है। यद्यपि यह सच है, कि जगत के अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य श्रेष्ठ है और इसी से मानव जाति के ही कल्याण का प्रधानता से 'लोकसंग्रह' शब्द में समावेश होता है; तथापि भगवान् की ही ऐसी इच्छा है कि भूलोक, सत्यलोक, पितृलोक और देवलोक प्रवृति जो अनेक लोक अर्थात् जगत् भगवान् नै बनाये हैं। उनका भी भली भाँति धारण-पोपण हो और वे सभी अच्छी रीति से चलते रहे। इसलिये कहना पड़ता है कि इतना सब व्यापक अर्थ 'लोकसंग्रह' पद से यहाँ विवक्षित है कि मनुष्यलोक के साथ ही इन सब लोकों का व्यवहार भी सुस्थिति से चले (लोकानां संग्रहः)। जनक के किये हुए अपने कर्तव्य के वर्णन में, जो ऊपर लिखा जा चुका है, देव और पितरों का भी उल्लेख है, एवं भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में तथा महाभारत के नारायणीयोपाख्यान में जिस यज्ञचक्र का वर्णन है उसमें भी कहा है, कि देवलोक और मनुष्यलोक दोनों ही के धारण-पोषण के लिये ब्रह्म- देव ने यज्ञ उत्पध किया (गी. ३. १०-१२)। इससे स्पष्ट होता है कि भगवट्रीता
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