३२८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । (गी. १८.२६) केवल कर्तव्य मान कर, अपने अपने अधिकारानुसार शान्तचित्त से करते रहें (गी.६.३)।नीति और मोक्ष की दृष्टि से उत्तम जीवन-क्रम का यही सच्चा तत्व है। अनेक स्थितप्रज्ञ, महाभगवद्भक और परम ज्ञानी पुरुषों ने एवं स्वयं भगवान् ने भी इसी मार्ग को स्वीकार किया है । भगवद्गीता पुकार कर कहती है, कि इस कर्मयोगमार्ग में ही पराकाष्ठा का पुरपार्थ या परमार्थ है, इसी 'योग' से परमेश्वर का भजन-पूजन होता है और अन्त में सिद्धि भी मिलती है (गी. १८.४६) । इतने पर भी यदि कोई स्वयं जान बूझ कर गैर-समझ कर ले, तो उसे दुर्दैवी कहना चाहिये । स्पेन्सर साहब को यधपि अध्यात्म दृष्टि सम्मत न थी; तथापि उन्होंने भी अपने 'समाजशास्त्र का अभ्यास' नामक अन्य के अन्त में, गीता के समान ही, यह सिद्धान्त किया है। यह बात आधिभौतिक रीति से भी सिद्ध है कि इस जगत् में किसी भी काम को एकदम कर गुजरना शक्य नहीं, उस के लिये कारणीभूत और आवश्यक दूसरी हज़ारों बातें पहले जिस प्रकार हुई होगी उसी प्रकार मनुप्य के प्रयल सफल, निष्फल या न्यूनाधिक सफल हुआ करते हैं। इस कारण यद्यपि साधारण मनुष्य किसी भी काम के करने में फलाशा से ही प्रवृत्त होते हैं, तथापि घुद्धिमान् पुरुष को शान्ति और उत्साह से, फल-संबंधी प्राप्रह छोड़ कर, अपना कर्तव्य करते रहना चाहिये। यद्यपि यह सिद्ध हो गया, कि ज्ञानी पुरुप इस संसार में अपने प्राप्त कमों को फलाशा छोड़ कर निष्काम बुद्धि से आमरणान्त अवश्य करता रहे, तथापि यह यतलाये विना कर्मयोग का विवेचन पूरा नहीं होता कि ये कर्म किससे और किस लिये प्राप्त होते हैं ? अतएव भगवान् ने कर्मयोग के समर्थनार्थ अर्जुन को अन्तिम और महाय का उपदेश दिया है कि “लोकसंग्रहमैवापि संपश्यन् कर्तुमईसि' “ Thus admitting that for the fanatic, some wild anti- cipation is needful as a stimulus, and recognizing the usefulness of his delusion as adapted to his particular nature and his par- tionlar funotion, the man of higher type must be content with greatly moderated expectations, while he perseveres with undi- minished efforts. He has to see how comparatively little can be done, and yet to find it worth while to do that little: Eo uniting philanthropio energy with philosophic calm.". Spencer's Study of Sociology, 8th Ed. p. 403. The italics are ours. 589744 में famatics के स्थान में प्रकृति के गुणों से विभूद ' (गी. ३.२९) या अहंकारविमूढ' (गो. ३.२७ ) अथवा भात कवि का 'मूर्ख' शब्द और man of higher sype के स्थान में विद्वान् (गो. ३.२५) एवं greatly moderated expectations के स्थान में • फलौदासीन्य ' अथवा फलाशालाग' इन समानार्थी शब्दों की योजना करने से ऐसा देख पड़ेगा कि सेन्सर साहब ने मानो गीता के हो सिद्धान्त का अनुवाद कर दिया है। "
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