संन्यास और कर्मयोग। ३२५ - शान्ति है। उसे अन्तिम कार्य न कह कर इस श्लोक में यह कहा है, कि शम अथवा शान्ति दूसरे किसी का कारण है-शमः कारणमुच्यते । अब शमको कारण मान कर देखना चाहिये कि आगे उसका ' कार्य ' क्या है। पूर्वापर सन्दर्भ पर विचार करने से यही निप्पन्न होता है, कि वह कार्य ' कर्म' ही है । और तब इस श्लोक का अर्थ ऐसा होता है, कि योगारूढ़ पुरुष अपने चित्त को शान्त करे तथा उस शान्ति या शम से ही अपने सब अगले व्यवहार करे-टीकाकारों के कथनानुसार यह अर्थ नहीं किया जा सकता कि योगारूढ़ पुरुप कर्म छोड़ दे। इसी प्रकार 'सारम्भ- परित्यागी' और 'अनिकेतः प्रभृति पदों का अर्थ भी कर्मत्यागविषयक नहीं, फलाशा- त्याग-विषयक ही करना चाहिये; गीता के अनुवाद में, उन स्थलों पर जहाँ ये पद आये हैं, हमने टिप्पणी में यह बात खोल दी है। भगवान ने यह सिद्ध करने के लिये, कि ज्ञानी पुरुप को भी फलाशा त्याग कर चातुर्वण्र्य आदि सब कर्म यथाशास्त्र करते रहना चाहिये, अपने अतिरिक दूसरा उदाहरण जनक का दिया है। जनक एक घड़े कर्मयोगी थे । उनको स्वार्थ-बुद्धि के छूटने का परिचय उन्हीं के मुख से यों है- • मिथिलायां प्रदीतायां न मे दसति किञ्चन' (शां. २७५. १ और २१६.५०)- मेरी राजधानी मिथिला के जल जाने पर भी मेरी कुछ हानि नहीं ! इस प्रकार अपना स्वार्थ अथवा लाभालाभ न रहने पर भी, राज्य के समस्त व्यवहार करने का कारण घतलाते हुए, जनक स्वयं कहते हैं- देवेभ्यश्च पितृभ्यश्च भूतेभ्योऽतिथिभिः सह । इत्यर्थे सर्व एवैते समारम्भा भवंति वै॥ " देव, पितर, सर्वभूत (प्राणी) और अतिथियों के लिये ये समस्त व्यवहार जारी है, मेरे लिये नहीं" (मभा. अश्व. ३२.२४) । अपना कोई फर्त्तव्य न रहने पर, अथवा स्वयं किसी वस्तु को पाने की वासना नरहने पर भी यदि जनक- श्रीकृष्ण जैसे महात्मा इस जगत् का कल्याण करने के लिये प्रवृत्त न होंगे, तो यह संसार उत्सन (अजड़) हो जायगा-सत्सीदेयुस्मेि लोकाः (गी. ३.२४)। कुछ लोगों का कहना है कि गीता के इस सिद्धान्त में कि फलाशा छोड़नी चाहिये, सब प्रकार की इच्छाओं को छोड़ने की आवश्यकता नहीं, ' और वासना- क्षय के सिद्धान्त में, कुछ बहुत भेद नहीं कर सकते । क्योंकि चाहे वासना छूटे, चाहे फलाशा छूटे दोनों ओर कर्म करने की प्रवृत्ति होने के लिये कुछ भी कारण नहीं देख पड़ता; इससे चाहे जिस पन को स्वीकार करें, अन्तिम परिणाम-कर्म का छूटना-दोनों ओर बराबर है। परन्तु यह आक्षेप अज्ञानमूलक है, क्योंकि 'फलाशा' शब्द का ठीक ठीक अर्थ न जानने के कारण ही यह उत्पन हुआ है । फलाशा छोड़ने का अर्थ यह नहीं कि सब प्रकार की इच्छाओं को छोड़ देना चाहिये, अथवा यह बुद्धि या भाव होना चाहिये कि मेरे कर्मों का फल किसी को न मिले और यदि मिले, तो उसे कोई भी न ले प्रत्युत पाँचवें प्रकरण में पहले ही हम कह आये हैं, कि अमुक फल पाने के लिये ही मैं यह कर्म करता हूँ'- इस
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