संन्यास और कर्मयोग। ३२३ मार्गियों के कपनानुसार 'तस्य कार्य न विद्यते। इसे स्वतंत्र सिद्धांत मान लेना उचित नहीं। इसके लिये उत्तम प्रमाण, आगे दिये हुए उदाहरण है। 'ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात कोई कन्य न रहने पर भी शाम से प्राप्त समस्त व्यवहार करने पड़ते -इस सिद्धान्त की पुष्टि में भगवान कहते है- न मे पायीऽस्ति कर्तव्य निषु लाक' किंचन । नानवासमवासव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥ "हे पार्थ! मेरा' इस त्रिभुवन में कुछ भी कर्तव्य (चाकी) नहीं है, अपया कोई समाप्त यस्तु पाने की (पासना) रही नहीं है। तणपि मैं कम ही करता हूँ" (गी. ३. २२) “म मे कर्तव्यमस्ति" (मुझे कर्तव्य नहीं रहा है) ये शब्द पूर्वोक्त श्लोक के "तस्य कार्य न विद्यते" (उसफो कुछ कर्तव्य नहीं रहता) इन्हीं शब्दों को जप करके कहे गये हैं। इससे सिद्ध होता है, कि इन चार पाँच श्लोकों का भावार्थ यही :-"शन से कर्तव्य के शेप न रहने पर भी, किंबहुना इसी कारण से शासतः प्राप्त समस्त व्यवहार अनासक युदि से करना ही चाहिये।" यदि ऐसा न हो, तो तस्य कार्य न विद्यते' इत्यादि श्लोकों में यतलाये हुए सिद्धान्त को दृढ़ करने के लिये भगवान् ने जो अपना उदाहरण दिया है वह (अलग) असंबद्ध सा हो जायगा और यह अनवस्था प्राप्त हो जायगी कि, सिद्धान्त तो कुछ और है। और उदाहरण ठीक उसके विस्त कुछ और ही है। इस अनयस्या को टालने के लिये संभ्यासमार्गीय टीकाकार " तस्मादसतः सततं कार्य फर्म समाचर" के 'तस्माद' शब्द का अर्थ भी निराली रीति से किया करते हैं। उनका कपन है कि गीता का मुख्य सिद्धान्त तो यही है, कि ज्ञानी पुरप कर्म छोड दे; परन्तु अर्जुन ऐसा शानी या नहीं इसलिये-तस्माद' - भगवान ने उसे फर्म करने के लिये कहा है। हम ऊपर कह भाये हैं कि गीता के उपदेश के पश्चात् भी अर्जुन अज्ञानी ही था' यह युक्ति ठीक नहीं है। इसके अतिरिक्त यदि 'तस्मात् ' शब्द का अर्थ इस प्रकार खींच तान कर लगा भी लिया, तो " न मे पार्याऽस्ति कर्त्तन्यम् " प्रभृति श्लोकों में भगवान् मे-"अपने किसी कर्तव्य के न रहने पर भी मैं कर्म करता हूँ" यह जो अपना उदाहरण मुख्य सिद्धान्त के समर्थन में दिया है, उसका मेल भी इस पक्ष में अच्छा नही जमता। इसलिये " तस्य कार्य न विद्यते " याक्य में 'फायें न विद्यते' शब्दों को मुख्य न मान कर 'तस्य' शब्द को ही प्रधान मानना चाहिये, और ऐसा करने से "तसादसतः सततं कार्य कर्म समाघर" का अर्थ यही करना पड़ता है कि "तू शानी है, इसलिये यह सच है, कि तुझे अपने स्वार्थ के लिये कर्म अनावश्यक हैं परन्तु स्वयं तेरे लिये कर्म अनावश्यक है, इसी लिये अब तू उन कर्मों को, जो शास्त्र से प्राप्त हुए हैं 'मुझे पावश्यक नहीं' इस युद्धि से अर्थात् निष्काम पुदि से, कर ।" घोड़े में यह अनुमान निकलता है, कि फर्म घोड़ने का यह कारण नहीं हो सकता कि वह हमें अनावश्यक है। किन्तु कर्म अपरिहार्य हैं इस कारण, शाम से मात अपरिहार्य कर्मों को, स्वार्थ-त्यागधुद्धि से
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