संन्यास और कर्मयोग । ३२१ छोड़ने की जरूरत नहीं है, सिर्फ कर्म-फलाशा छोड़ने से ही सब निर्वाह हो जाता है। परन्तु जय ज्ञान-प्राति से हमारी बुद्धि निष्काम हो जाती है तब सय वासनाओं का क्षय हो जाता है और कर्म करने की प्रवृत्ति होने के लिये कोई भी कारण नहीं रह जाता; तय ऐसी अवस्था में अर्थात् वासना के क्षय से-कायदेश-मय से नहीं- सप कर्म पाप ही आप टूट जाते हैं। इस संसार में मनुष्य का परम पुरुषार्य मोक्ष ही है। जिसे शान से वह मोक्ष प्राप्त हो जाता है उसे प्रजा, सम्पत्ति सयया स्वर्गादि लोकों के सुख में से किसी की भी " एपणा" (इच्छा) नहीं रहती (ए. ३.५.१ और ५.४.२२)। इसलिये कर्मों को न चोड़ने पर भी अन्त में उस ज्ञान का स्वाभाविक परिणाम यही हुआ करता है, कि कर्म आप ही आप छूट जाते है। इसी अभिप्राय से उत्तरगीता में कहा है- शानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः । न चास्ति किंचितव्यमस्ति चेन्न स तत्ववित् ।। ज्ञानामृत पी कर कृतकृत्य हो जानेवाले पुरुष का फिर शागे कोई फर्त्तव्य नहीं रहता; और, यदि रह जाय, तो वह तापवित् अर्थात् ज्ञानी नहीं है" (१.२३) । यदि किसी को शंका हो, कि यह ज्ञानी पुरुष का दोष है, तो ठीक नहीं क्योंकि श्रीशराचार्य ने कहा है “ अलङ्कारो स्वयमस्माकं यद्महात्मावगती सत्या सर्वफर्त- व्यताहानिः" (वेसू. शां. भा. १.१.४)-अर्यात् यह तो प्रस्मशानी पुरुष का एफ अलझार ही है। उसी प्रकार गीता में भी ऐसे वचन हैं, जैसे "तस्य कार्यन विधते" (गी. ३.१७)-शानी को भागे करने के लिये कुछ नहीं रहता; उसे समस्त वैदिक कर्मों का कोई प्रयोजन नहीं (गी. २.४६) अथवा "योगारूतस्य तत्यैव शमः कारणमुच्यते " (गी. ६.३)-जो योगाड़ हो गया, उसे शम ही कारण है। इन वचनों के अतिरिक्त "सरिम्मपरित्यागी" (गी. १२,१६) पर्याद समस्त उद्योग छोड़नेवाला और “ अनिकेतः । (गी. १२.१६) अर्थात् बिना घर- द्वार का, इत्यादि विशेषण भी ज्ञानी पुरुष के लिये गीता में प्रयुक्त हुए हैं। इन सब पातों से कुछ लोगों की यह राय है - भगवडीता को यह मान्य है कि ज्ञान के पश्चात् कर्म तो आप ही आप छूट जाते हैं । परन्तु, हमारी समझ में, गीता के वाफ्यों के ये मर्थ और उपयुक्त युक्तिवाद भी ठीक नहीं। इसी से, इसके विरुव हमें जो कुछ कहना है उसे अब संक्षेप में कहते हैं। सुख-दुःख-विधेक प्रकरण में हमने दिखलाया है, कि गीता इस यात को नहीं मानती कि ज्ञानी होने से मनुष्य की सय प्रकार की इच्छाएँ या वासनाएँ घट क्षी जानी चाहिये । सिर्फ इच्छा या वासना रहने में कोई दुःख नहीं, दुःख की सची जड़
- यह समझ ठीक नहीं, कि यह शोक श्रुति का । वेदान्तसूत्र ने शांकरभाष्य में यह
सोक नहीं है। परन्तु सनरसुजातीय के माप्य में आचार्य ने इसे लिया है और वहाँ काश है, कि यह लिंगपुराण का शोक है । इसमें सन्देह नहीं कि यह लोक संन्यासमार्गवालों का है, कर्मयोगियों का नहीं । बोलपयन्यों में भी ऐसे ही वचन है (देसो परिशिष्ट प्रकरण)। सी. र.४१