संन्यास और कर्मयोग । उसे कर्म का डर ही किस लिये है अथवा, कर्मों के न करने का व्यर्य आग्रह ही वह क्यों करे ? बरसाती छत्ते की परीक्षा जिस प्रकार पानी में ही होती है उसी प्रकार या- विकारहेतौ सति विक्रियते, येषां न चतांसि त एव धीराः । "जिन कारणों से विकार उत्पन होता है, वे कारण अथवा विषय दृष्टि के आगे रहने पर भी, जिनका अन्तःकरण मोह के पंजे में नहीं फंसता, वे ही पुरुष धैर्य- शाली कहे जाते हैं" (कुमार. १. ५६)- कालिदास के इस ज्यापक न्याय से, कर्मों के द्वारा ही मनोनिग्रह की जाँच हुआ करती है और स्वयं कार्यकर्ता को तथा और लोगों को भी ज्ञात हो जाता है, कि मनोनिग्रह पूर्ण हुआ या नहीं। इस दृष्टि से भी यही सिद्ध होता है, कि शास्त्र से प्राप्त (अर्थात् प्रवाह-पतित) कर्म करना ही चाहिये (गी. १८.६) । अच्छा, यदि कहो, कि "मन वश में है और यह डर भी नहीं, कि जो चित्तशुद्धि प्राप्त हो चुकी है, यह कर्म करने से बिगड़ जावेगी; परंतु ऐसे व्यर्थ कर्म करके शरीर को कष्ट देना नहीं चाहते कि जो मोक्ष-प्राप्ति के लिये अनावश्यक " तो यह कर्मत्याग 'राजस' कहलावेगा, क्योंकि यह काय-क्केश का भय कर केवल इस क्षुद्र बुद्धि से किया गया है कि देह को कष्ट होगा; और, त्याग से जो फल मिलना चाहिये वह ऐसे राजस' कर्मत्यागी को नहीं मिलता (गी. १८.)। फिर यही प्रश्न है कि कर्म छोड़े ही क्यों ? यदि कोई कहे, कि 'सब फर्म माया-दष्टि के हैं, अतएव अनित्य हैं, इससे इन कर्मों की झंझट में पड़ जाना, ब्रह्म-सृष्टि के नित्य आत्मा को उचित नहीं' तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि जब स्वयं परवम ही माया से आच्छादित है, तब यदि मनुष्य भी उसी के अनुसार माया में व्यवहार करे तो क्या हानि है? मायासृष्टि और प्रशसृष्टि के भेद से जिस प्रकार इस जगत के दो भाग किये गये हैं, उसी प्रकार आत्मा और देहेन्द्रियों के भेद से मनुष्य के भी दो भाग हैं। इनमें से, आत्मा और प्रामा का संयोग करके घर में आत्मा का लय कर दो और इस ब्रह्मासफ्य-ज्ञान से बुद्धि को निःसङ्ग रख कर केवल मायिक देहेन्द्रियों द्वारा मायासृष्टि के व्यवहार किया करो। यस इस प्रकार यर्ताव करने से मोक्ष में कोई प्रतियन्ध न पावेगा और उक्त दोनों भागों का जोड़ा आपस में मिल जाने से सृष्टि के किसी भाग की उपेक्षा या विच्छेद करने का दौप भी न लगेगा; तथा प्रस-सृष्टि एवं माया-सृष्टि-परलोक और इहलोक - दोनों के कर्त्तव्य-पालन का श्रेय भी मिल जायगा । ईशोपनिषद् में इसी तत्व का प्रतिपादन है (ईश. ११)। इन श्रुतिवचनों का भागे विस्तार सहित विचार किया जावेगा । यहाँ इतना ही कह देते हैं, कि गीता में जो कहा है कि "बलात्मैक्य के अनुभवी ज्ञानी पुरुष मायासृष्टि के व्यवहार केवल शरीर अथवा केवल इन्द्रियों से ही किया करते हैं" (गी. ४. २१,५. १२) उसका तात्पर्य भी वही है। थौर, इसी उद्देश से अठारहवें अध्याय में यह सिद्धान्त किया है, कि "निस्सन युदि से, फलाशा छोड़ कर, केवल कर्त्तव्य समझ कर, कर्म करना ही सच्चा स्टिस कर्मत्याग है- फर्म छोड़नः सच्चा कसत्याग २
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