गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । पहले लिख ही चुके हैं कि इसी प्रकार नारायणीय धर्म में भी इन दोनों पन्यों का पृथक् पृथक् स्वतंत्र रीति से. एवं सृष्टि के प्रारम्भ से प्रचलित होने का वर्णन किया गया है। परन्तु स्मरण रहे, कि महाभारत में प्रसङ्गानुसार इन दोनों पन्यों का वर्णन पाया जाता है, इसलिये प्रवृत्तिमार्ग के साथ ही निवृत्तिमार्ग के समर्थक वचन भी उसी महाभारत में ही पाये जाते हैं। गीता की संन्यासमार्गीय टीकाओं में, निवृतिमार्ग के इन वचनों को ही मुख्य समझ कर, ऐसा प्रतिपादन करने का प्रयत्न किया गया है, मानों इसके सिवा और दूसरा पन्थ ही नहीं है और यदि हो भी तो वह गौण है अर्थात् संन्यासमार्ग का केवल अङ्ग है। परन्तु यह प्रतिपादन साम्प्रदा- यिक आग्रह का है और इसी से गीता का अर्थ सरल एवं स्पष्ट रहने पर भी, आज फल वह बहुतों को दुर्योध हो गया है। गीता के " लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा (गी. ३.३) इस श्लोक की बराबरी का ही " द्वाविमावथ पन्धानौ " यह श्लोक है। इससे प्रगट होता है कि इस स्थान पर दो समान बलवाले मार्ग बतलाने का हेतु है। परन्तु, इस स्पष्ट अर्थ की ओर अथवा पूर्वापर सन्दर्भ की ओर ध्यान न दे कर कुछ लोग इसी श्लोक में यह दिखलाने का यत्न किया करते है कि दोनों मार्गों के बदले एक हीमार्ग प्रतिपाय है! इस प्रकार यह प्रगट हो गया कि कर्मसंन्यास(सांख्य) और निष्काम कर्म (योग), दोनों वैदिक धर्म के स्वतंत्र मार्ग है और उनके विषय में गीता का यह निश्चित सिद्धान्त है कि वे वैकल्पिक नहीं है, किन्तु संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग. की योग्यता विशेष है।' अव कर्मयोग के सम्बन्ध में, गीता में आगे कहा है कि जिस संसार में हम रहते हैं वह संसार और उसमें हमारा क्षण भर जीवित रहना भी जव कर्म ही है. तब कर्म छोड़ कर जावै कहाँ ? और, यदि इस संसार में अथांत कर्मभूमि में ही रहना हो, तो कर्म छूटेंगे ही जैसे? इम यह प्रत्यक्ष देखते हैं। कि जब तक देह है, तब तक भूख और प्यास जैसे विकार नहीं छूटते हैं (गी. ५.८६) और उनके निवारणार्थ भिक्षा माँगना जैसा लजित कर्म करने के . लिये भी संन्यासमार्ग के अनुसार यदि स्वतंत्रता है, तो अनासक्तवाद्धि से अन्य व्यावहारिक शास्त्रोक्त कर्म करने के लिये ही प्रत्यवाय कौन सा है? यदि कोई इस डर से अन्य कर्मों का त्याग करता हो, कि कर्म करने से कर्मपाश में फंस कर ब्रह्मानन्द से पश्चित रहेंगे अथवा ब्रह्मात्मैक्य-रूप अद्वैतयुद्धि विचलित हो जायगी, तो कहना चाहिये कि अब तक उसका मनोनिग्रह कच्चा है और मनोनिग्रह के कच्चे रहते हुए किया हुआ कर्मत्याग गीता के अनुसार मोह का अर्थात् तामस अथवा मिथ्याचार है (गी. १८.७,३.६)। ऐसी अवस्था में यह अर्थ आप ही आप प्रगट होता है, कि ऐसे कच्चे मनोनिग्रह को चित्तशुद्धि के द्वारा पूर्ण करने के लिये, निष्काम बुद्धि बढ़ानेवाले यज्ञ दान प्रभृति गृहस्थानम के श्रौत या सात कर्म ही उस मनुष्य को करना चाहिये । सारांश, ऐसा कर्मत्याग कभी श्रेयस्कर नहीं होता। यदि कहें, कि मन निर्विषय है और वह उसके अधीन है, तो फिर
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