३१४ गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । लिया। इसके विपरीत, जनक सुलभा-संवाद में जनक ने स्वयं अपने विषय में कहा है कि “इम मुक्तसर दो फर-त्रासक्ति छोड़ करताय करते हैं । यदि हमारे एक हाथ को चन्दन लगायो और दूसरे को छील ढालो, तो भी उसका सुख और दुःख इसे एक सा ही है। अपनी स्थिति का इस प्रकार वर्णन कर (ममा. शां. ३२०.३६) जनक ने आगे सुलभा से कहा है- मोक्षे हि त्रिविघा निष्ठा दृष्टाऽन्यौवित्तमः । ज्ञानं लोकोत्तरं यश्च सर्वत्यागश्च कर्मणाम् ।। ज्ञाननिष्ठां वदंत्येक मोक्षधानविदो जनाः । कर्मनिष्ठां तथैवान्ये यतयः सूक्ष्मदर्शिनः ॥ प्रहायोमयमप्येवं ज्ञानं कम च कंवलम् । तृतीयं समाख्याता निष्ठा तेन महात्मना । अर्थात् मोक्षशास्त्र के ज्ञाता मोक्ष-प्राप्ति के लिये तीन प्रकार की निष्टाएँ बतलात है-()ज्ञान प्राप्त कर सब कमी का त्याग कर देना इसी को कुछ मोक्ष- शास्त्रज्ञ ज्ञाननिष्ठा कहते हैं। (२) इसी प्रकार दूसरे सूक्ष्मदर्शी लोग कर्मनिटा बतलाते हैं। परन्तु केवल ज्ञान और केवल कर्स-इन दोनों निष्टाओं को छोड़ कर, (३) यह तीसरी (अयांत ज्ञान से आसक्तिका क्षय कर कर्म करने की) निष्टा (मुझ) उस महान्ना (पञ्चशिख) ने वतलाई है" (ममा. शां. ३२०.३८-४०)। निष्ठा शब्द का सामान्य अर्थ अन्तिम स्थिति, आधार या अवस्था है । पल्तु इस स्थान पर और गीता में भी निटा शब्द का अर्थ " मनुष्य के जीवन का वह मान, इंग, रीति या उपाय है, जिससे आयु विताने पर अन्त में मौज्ञ की प्राप्ति होती है। गीता पर जो शाकरमाप्य है, उसमें भी निष्टा= अनुष्यतात्पर्य-अर्थात् आयुष्य या जीवन में जो कुछ अनुष्टेय (आचरण करने योग्य) हो उसमें तत्परता (निमन्त रहना)- यही अर्थ किया है । आयुष्य-श्म या नीवन-क्रम के इन भागों में से जैमिनि प्रमुख मीमांसकों ने ज्ञान को महत्व नहीं दिया है, किन्तु यह कहा है कि यज्ञ-याग आदि कर्म करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है- ईजाना बहुभिः यः ब्राह्मणा वेदपारगाः । शास्त्राणि चेत्प्रमाणं त्युः प्राताले परमां गतिम् ॥ क्योंकि, ऐसा न नानने ले, शास्त्र की अर्थात् वेद की आज्ञा व्यर्थ हो जावेगी (जे. सु. ५. २. २३ पर शावरमाप्य देखो)। और, उपनिषत्कार तथा बादरायणाचार्य ने, यह निचय कर कि यज्ञ-याग आदि सभी कर्म गौण हैं, सिद्धान्त किया है कि मोक्ष की प्राक्षि ज्ञान से ही होती है, ज्ञान के सिवा और किसी से भी मान का मिलना शक्य नहीं (वे. ३.१.१, २) । पल्नु जनक कहते हैं कि इन दोनों निष्टाओं को छोड़ कर आसचि-विहित कर्म करने की एक तीसरी ही निष्टा पञ्चशिस रे (स्वर दरमा हो कं नौ) इन बदलाई है। दोनों नियों को छोड़
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३५३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।