संन्यास और कर्मयोग । ३१३ कर कि जब समस्त लोक ही हमारा प्रात्मा हो गया है, तय हमें (दूसरी) सन्तान किस लिये चाहिये, वे लोग सन्तति, संपत्ति, और स्वर्ग आदि में से किसी की भी 'एपणा' अर्थात् चाह नहीं करते थे, किन्तु उससे निवृत्त होकर वे ज्ञानी पुरुष भिक्षाटन करते हुए घूमा करते थे अथवा " इस रीति से जो लोग विरक्त हो जाते हैं उन्हीं को मोक्ष मिलता है, (मुं. १. २. ११); या अन्त में “ यदहीप विर- जेत् तदहरेध प्रव्रजेत् " (जाया. ४)-जिस दिन बुद्धि पिरक्त हो, उसी दिन संन्यास ले ले । इस प्रकार वेद की प्राज्ञा द्विविध अर्थात् दो प्रकार की होने से (मभा. शां. २४०.६) प्रवृत्ति और निवृत्ति, या कर्मयोग और सांख्य, इनमें से जो श्रेष्ठ मार्ग हो, उसका निर्णय करने के लिये यह देखना आवश्यक है, कि कोई दूसरा उपाय है या नहीं। प्राचार अर्थात् शिष्ट लोगों के व्यवहार या रीति-भाँति को देख कर इस प्रक्ष का निर्णय हो सकता, परन्तु इस सम्बन्ध में शिष्टाचार भी उभयविध अर्थात् दो प्रकार का है। इतिहास से प्रगट होता है, कि शुक और याज्ञवल्क्य प्रकृति ने तो संन्यासमार्ग का, एवं जनक, श्रीकृष्ण और जैगीपन्य प्रमुख ज्ञानी पुरुषों ने कर्मयोग का ही, भवलम्यग किया था। इसी अभिप्राय से सिद्धान्त पन की दलील में चादरा- यणाचार्य ने कहा है " तुल्यं तु दर्शनम् " (वेसू. ३. ५.६)-अर्थात् प्राचार की दृष्टि से ये दोनों पंथ समान बलवान हैं। स्मृति वचन' भी ऐसा है- विवेकी सर्वदा मुक्तः कुर्वतो नास्ति कर्तृता । अलेपवादमाश्रित्य श्रीकृष्णजनको यथा ।। अर्थात् "पूर्ण ममज्ञानी पुरुष सब कर्म करके भी श्रीकृष्ण और जनक के समान अकर्ता, अलिस एवं सर्वदा मुक्त ही रहता है। ऐसा ही भगवद्गीता में भी कर्म- योग की परम्परा यतलाते हुए मनु, इक्ष्वाकु यादि के नाम पतला कर कहा है कि " एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्व पि मुमुक्षुभिः" (गी. ४. १५)- ऐसा जान कर प्राचीन जनक प्रादि ज्ञानी पुरुषों ने कर्म किया। योगवासिष्ट और भागवत में जनक के सिवा इसी प्रकार के दूसरे बहुत से उदाहरण दिये गये हैं (यो. ५. ७५; भाग. २. ८.४३-४५.) । यदि किसी को शक्षा हो, कि जनक आदि पूर्ण प्रमज्ञानी न थे तो योगवासिष्ठ ने स्पष्ट लिखा है, कि ये सब जीवन्मुक 'थे। योगवासिष्ट में ही क्यों, महाभारत में भी कया है, कि व्यासजी ने अपने पुत्र शुक को मोक्षधर्म का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेने के लिये अन्त में जनक के यहाँ भेजा था (मभा. शां. ३२५ और यो. २.१ देखो) । इसी प्रकार उपनिपदों में भी कथा है कि अन्धपति कैकेय राजा ने उहालक- वपि को (छt. ५. ११-२४) और काशिराज अजातशत्रु ने गार्य यालाकी को (पृ. २.१) नमज्ञान सिखाया था । परन्तु यह वर्णन कहीं नहीं मिलता, कि अश्वपति या जनक ने राजपाट छोड़ कर कर्मत्याग रूप संन्यास ले • इसे स्मृतिवचन मान कर आनन्दगिरि ने कठोपनिषद् (२.१९) के शांकरभाष्य की टीका में उद्धृत किया है। नहीं मालूम या कों का वचन है। गी, र, ४०
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