३१२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । में, वरन् अन्य देशों में भी प्राचीन समय से प्रचलित पाये जाते हैं । अनंतर, इस विषय में, गीताशास्त्र के दो मुख्य सिद्धांत बतलाये गये:-(१) ये दोनों मार्ग स्वतन्न अर्थात् मोक्ष की दृष्टि से परस्पर निरपेन और तुल्य बलवाले हैं, एक दूसरे का अङ्ग नहीं; और (२) इनमें कर्मयोग ही अधिक प्रशस्त है। और, इन दोनों सिद्धान्तों के अत्यन्त स्पष्ट होते हुए भी टीकाकारों ने इनका विपर्यास किस प्रकार और क्यों किया, इसी बात को दिखलाने के लिये यह सारी प्रस्तावना लिखनी पड़ी। अय, गीता में दिये हुए उन कारणों का निरूपण किया जायगा, जो प्रस्तुत प्रकरण की इस मुख्य बात को सिद्ध करते हैं, कि सिद्धावस्था में भी कर्मत्याग की अपेक्षा आमरणान्त कर्म करते रहने का मार्ग अर्थात् कर्मयोग ही अधिक श्रेयस्कर है। इनमें से कुछ यातों का खुलासा तो सुखदुःख-विवेक नामक प्रकरण में पहले ही हो चुका है । परन्तु वह विवेचन था सिर्फ सुख-दुःख का, इसलिये वहाँ इस विषय की पूरी चर्चा नहीं की जा सकी । अतएव, इस विषय की चर्चा के लिये ही यह स्वतंत्र प्रकरण लिखा गया है। वैदिक धर्म के दो भाग हैं-कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड । पिछले प्रकरण में उनके भेद बतला दिये गये हैं। कर्मकाण्ड में अर्थात् ब्राह्मण आदि श्रौत ग्रंथों में और अंशतः उपनिषदों में भी ऐसे स्पष्ट वचन है, कि प्रत्येक गृहस्य - फिर चाहे वह यामण हो या क्षत्रिय-अमिहोत्र करके यथाधिकार ज्योतिष्टोम आदिक यज्ञ-याग करे और विवाह करके वंश बढ़ांवे । उदा- हरणार्थ, "एतद्वै जरामय सत्रं यदमिहोत्रम्" -इस अग्निहोत्ररूप सत्र को मरण पर्यंत जारी रखना चाहिये (श. वा. १२. ४. १.१), "प्रजातंतुं मा व्यवच्छेत्सीः- वंश के धागे को टूटने न दो (तै. उ. १. ११.१); अथवा " ईशावास्यमिदं सर्वम्" -संसार में जो कुछ है, उसे परमेश्वर से अधिष्ठित को अर्थात् ऐसा समझ, कि मेरा कुछ नहीं उसी का है, और इस निष्काम बुद्धि से- कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। एवं त्वयि नान्ययेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे । "कर्म करते रह कर ही सौ वर्ष अर्थात आयुष्य की मर्यादा के अन्त तक जीने की इच्छा रखे, एवं ऐसी ईशावास्य बुद्धि से कर्म करेगा तो उन कर्मों का तुझी (पुरुष को) लेप (वन्धन) नहीं लगेगा। इसके अतिरिक (लेप अथवा बन्धन से वचने के लिये) दूसरा मार्ग नहीं है (ईश. १ और २); इत्यादि वचनों को देखो । परन्तु जब हम कर्मकाण्ड से ज्ञानकाण्ड में जाते हैं, तब हमारे वैदिक ग्रन्थों में ही अनेक विल्द-पक्षीय वचन भी मिलते हैं, जैसे " ब्रह्मविदामोति परम् " (ते. २.१.१)- घह्मज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है; " नान्यः पन्या विद्यतेऽयनाय" (.३.८)- (विना ज्ञान के) मोक्ष-प्राप्ति का दूसरा मार्ग नहीं है।" पूर्वे विद्वांसः प्रजा न काम- यन्ते । किं प्रजया पामो येषां नोऽयमात्साऽयं लोक इति ते हस्म पुत्रैषणायाश्च विपणायाश्च लोकैपणायाश्च युत्यायाय भिक्षाच्यं चरति " (वृ. ४. ४. २२ और ३.५.१)-शाचीव ज्ञानी पुरुषों को एम आदि की इच्छा न थी, और यह समझ
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