गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । मी जरूरत है। इस प्रकरण में आगे विस्तार सहित विचार किया गया है, किये अन्य कारण कौन से हैं। यहाँ इतना ही कह देते हैं, कि जो अर्जुन संन्यास लेने के लिये तैयार हो गया था उसको ये कारण चवलाने के निमित्त ही गीताशास्त्र की प्रवृत्ति हुई है। और ऐसा अनुमान नहीं किया जा सकता, कि चित्त की शुदि के पश्चात् मान के लिये कर्मों की अनावश्यकता यतला कर गीता में संन्यासमार्गधी का प्रतिपादन किया गया है । शाहरसंप्रदाय का यह मत है सही कि ज्ञान-प्राप्ति के अनंतर संन्यालात्रम ले कर कमी को छोड़ ही देना चाहिय; परंतु उससे यह नहीं सिद्ध होता कि गीता का तात्पर्य भी वही होना चाहिये और न यही बात सिद्ध होती है कि अकले शारसम्प्रदाय को या अन्य किसी सम्प्रदाय को 'धर्म' मान कर उसी के अनुकूल गीता का किसी प्रकार अयं लगा लेना चाहिये । गीता का तो यही स्थिर सिद्धान्त है, कि ज्ञान के पश्चात मी संन्यासमार्ग ग्रहण करने की अपेक्षा कर्मयोग को स्वीकार करना ही उत्तम पन है। फिर उसे चाई निराला सम्म दाय कहो या और कुछ उसका नाम रखो। परंतु इस बात पर भी ध्यान देना चाहिये, कि यद्यपि नीता को कर्मयोग ही श्रेष्ट जान पड़ता है, तथापि अन्य परमतस- हिप्णु सम्प्रदायों की भांति उसका यह आग्रह नहीं, कि संन्यास-मार्ग को सर्वथा त्याज्य मानना चाहिये । गीता में संन्यासमार्ग के सन्दन्य में कहीं भी अनादर-भाव नहीं दिखलाया गया है। इसके विल्द, भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि संन्यास और कर्मयोग दोनों मार्ग एक ही से निःश्रेयस्कर मोक्षदायक अयवा मीनरष्टि से समान मूल्यवान् हैं। और आगे इस प्रकार की युक्तियों से इन दो मिन मित्र मागों की एकरूपता भी कर दिखलाई है कि “एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति । (गी. ५.५)-जिसे यह मालूम हो गया कि, ये दोनों मागं एक ही है अर्थात् समान यलवाले हैं, उसे ही सदा तत्वज्ञान जुआ; या 'कर्मयोग' हो, तो उसमें भी फलाशा का सैन्याल करना ही पड़ता है- “नहसंन्यस्तसंचसो योगी भवति कथन (गी. ६.३)। यद्यपि ज्ञान प्राप्ति के अनंतर (पहले ही नहीं) कर्म का संन्यास करना, या कर्मयोग स्वीकार करना, दोनों मार्ग मोक्षरष्टि से एक सी ही योग्यता के हैं, तथापि लोकन्यवहार की दृष्टि से विचारने पर यही मार्ग सर्वश्रेष्ठ है, कि बुद्धि में संन्यात रत कर प्रयांद निष्काम बुद्धि से देहन्द्रियों के द्वारा जीवनपर्यंत लांसंग्रह कारक सब कार्य किये जायें। क्योंकि भगवान् का निश्चित उपदेश है कि इस उपाय से संन्यास और कर्म दोनों स्थिर रहते हैं एवं तदनुसार ही, फिर अर्जुन युद्ध के लिये प्रवृत्त हुना है। ज्ञानी और अज्ञानी में यही तो इतना मैद है। केवल शारीर अयान देहेन्द्रियों के कम, देखें तो दोनों के एक से हॉग ही; परनु अज्ञानी मनुष्य उन्हें आलक बुद्धि से नीर ज्ञानी मनुष्य अना- सम्वुद्धि से न्यिा करता है (गी. ३.२५) । मास कवि ने गीता के इस सिद्धान्त का वर्णन अपने नाटक में इस प्रकार किया है- प्राशय मूर्खत्य च कार्ययोगे । समत्वमन्येति तनुन वृद्धिः।।
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