गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । केवल चित्तशुद्धि के निमिच ही कर्म करना चाहिये। इस अर्थ के अनुसार कर्म- योग संन्यासमार्ग का पूर्वाङ्ग हो जाता है। परन्तु यह गीता में वर्णित कर्मयोग नहीं है। (३) जो जानता है कि मेरे आत्मा का कल्याण किस में है, वह ज्ञानी पुरुष स्वधर्मोक्त युद्धादि सांसारिक कर्म मृत्यु पर्यन्त करे या न करे, यही गीता में मुख्य प्रभ है और इसका उत्तर यही है कि ज्ञानी पुरुष को भी चातुर्वण्य के सव कर्म निष्काम-शुद्धि से करना ही चाहिये (गी. ३. २५) यही 'कर्मयोग' शब्द का तीसरा अर्थ है और गीता में यही कर्मयोग प्रतिपादित किया गया है । यह कर्म- योग संन्यासमार्ग का पूर्वाङ्ग कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि इस मार्ग में कर्म कभी छूटते ही नहीं । अव प्रश्न है केवल मोक्ष प्राप्ति के विषय में। इस पर गीता में स्पष्ट कहा है, कि ज्ञान-प्राप्ति हो जाने से निष्काम-कर्म बन्धक नहीं हो सकते, प्रत्युत संन्यास से जो मोक्ष मिलता है वही इस कर्मयोग से भी प्राप्त होता है (गी.. ५)। इसलिये गीता का कर्मयोग संन्यासमार्ग का पूर्वाङ्ग नहीं है। किन्तु ज्ञानोत्तर ये दोनों मार्ग मोक्षदृष्टि से स्वतन्त्र अर्थात तुल्यवल के हैं (गी. ५.२) गीता के " लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा " (गी. ३.३) का यही अर्थ करना चाहिये । और इसी हेतु से, भगवान् ने अगले चरण में-" ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् "- इन दोनों मागों का पृथक् पृथक् स्पष्टीकरण किया है। आगे चल कर तेरहवें अध्याय में कहा है " अन्ये सांख्येन योगन कर्मयोगेन चापरे" (गी- १३. २४) इस श्लोक के-'अन्ये' (एक) और 'अपरे' (दूसरे) ये पद उक्त दोनों भागों को स्वतन्त्र माने विना, अन्वर्थक नहीं हो सकते । इसके सिवा, जिस नारा. यणीय धर्म का प्रवृत्तिमार्ग (योग) गीता में प्रतिपादित है, उसका इतिहास महाभारत में देखने से यही सिद्धांत दृढ़ होता है । सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् ने हिरण्यगर्भ अर्थात् ब्रह्मा को सृष्टि रचने की आज्ञा दी: उनसे मरीचि प्रमुख सात मानस पुत्र हुए। सृष्टि-क्रम का अच्छे प्रकार आरम्म करने के लिये उन्होंने योग अर्थात् कर्ममय प्रवृत्ति मार्ग का अवलम्बन किया। ब्रह्मा के सनत्कुमार और कपिल प्रभृति दूसरे सात पुत्रों ने, उत्पन्न होते ही, निवृत्तिमार्ग अर्थात् सांख्य का अवलम्बन किया। इस प्रकार दोनों मार्गों की उत्पत्ति बतला कर आगे स्पष्ट कहा है, कि ये दोनों मार्ग मोक्ष-दृष्टि से तुल्यवल अर्थात् वासुदेव-स्वरूपी एक ही परमेश्वर की प्राप्ति करा देनेवाले, मिन्न भिन्न और स्वतन्त्र हैं (मभा. शां. ३५८. ७४, ३४६. ६३-७३) । इली प्रकार यह भी भेद किया गया है, कि योग अर्थात् प्रवृत्तिमार्ग के प्रवर्तक हिरण्यगर्भ हैं और सांख्यमार्ग के मूल प्रवर्तक कपिल हैं परन्तु यह कहीं नहीं कहा है कि आगे हिरण्यगर्भ ने कमी का त्याग कर दिया । इसके विपरीत ऐसा वर्णन है, कि भगवान् ने सृष्टि का व्यवहार अच्छी तरह से चलता रखने के लिये यज्ञ-चक्र को उत्पन्न किया और हिरण्यगर्भ से तथा अन्य देवताओं से कहा कि इसे निरन्तर जारी रखो (मभा. शां. ३४०. ४४-७५ और ३३६.६६, ६७ देखो)। इससे निर्विवाद सिद्ध होता है, कि सांख्य और योग दोनों
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