संन्यास और फर्मयोग। ३०५ में लगा देने के लिये कुछ भी अड़चन नहीं रहती। यदि ऐसे पुरुप मेप से संन्यासी हॉ, तो भी ये तत्व-रष्टि से फर्मयोगी ही है। परन्तु विपरीत पक्ष में अर्थात् जो लोग इस संसार के समस्त व्यवहारों को निःसार समझ उनका त्याग करके चुपचाप रहते हैं, उन्हीं को संन्यासी कहना चाहिये। फिर चाहे उन्होंने प्रत्यक्ष चौया पाश्रम प्रहण किया हो या न फिया हो। सारांश, गीता का कटान भगवे अथवा सफेद कपड़ों पर और विवाह या घमचर्य पर नहीं है। प्रत्युत इसी एक यात पर नज़र रख कर गीता में संन्यास और कर्मयोग, दोनों मागों का विभेद किया गया है कि ज्ञानी पुरुष जगत् के व्यवहार करता है या नहीं। शेष यातें गीताधर्म में महत्व की नहीं हैं। संन्यास या चतुर्थाश्रम शब्दों की अपेक्षा कर्मसंन्यास अथवा कर्मत्याग शब्द यहाँ अधिक अन्यर्थक और निःसन्दिग्ध है। परन्तु इन दोनों की अपेक्षा सिर्फ संन्यास शब्द के व्यवहार की ही अधिक रीति होने के कारण उसके पारिभाषिक अर्थ का यहाँ विवरण किया गया है। जिन्हें इस संसार के व्यवहार निःसारप्रतीत होते हैं, वे उससे निवृत्त हो अरण्य में जा कर स्मृति-धर्मानुसार चतुर्याश्रम में प्रवेश करते हैं, इससे कर्मत्याग के इस मार्ग को संन्यास कहते हैं। परन्तु इसमें प्रधान भाग कर्मत्याग ही है, गेरुवे कपड़े नहीं। यपि इस प्रकार इन दोनों पक्षों का प्रचार हो कि पूर्ण ज्ञान होने पर आगे कर्म करो (फर्मयोग ) या कर्म तोड़ दो (फर्मसंन्यास), तथापि गीता के साम्प्र- दायिक टीकाकारों ने अय यहाँ यह प्रश्न छेड़ाई, कि क्या अन्त में मोक्ष प्रालि फर देने लिये दोनों मार्ग स्वतन्द्र अर्थात् एक से समर्ष ई प्रयचा, कर्मयोग केवल पूर्वाद यानी पहली सीढ़ी है और अन्तिम मोक्ष की प्राप्ति के लिये कर्म घोड़ कर संन्यास लेना ही चाहिये ? गीता के दूसरे और तीसरे अध्यायों में जो वर्णन है, उससे जान पड़ता है कि ये दोनों मार्ग स्वतन्त्र है। परन्तु जिन टीकाकारों का मत है, कि कभी न कभी संन्यास प्राधम को प्राीकार कर समस्त सांसारिक फाँ को घोड़े यिना मोब नहीं मिल सकता-और जो लोग इसी बुद्धि से गीता की टीका करने में प्रवृत्त हुए है, कि यही यात गीता में प्रतिपादित की गई है- गीता का यह तात्पर्य निकालते हैं कि " कर्मयोग स्वतन्त्र रीति से मोक्ष प्राति का मार्ग नहीं है पदले चित्त की शुद्धता के लिये कर्म कर अन्त में संन्यास ही लेना चाहिये, संन्यास ही अन्तिम मुख्य निष्ठा है।" परन्तु इस अर्थ को स्वीकार कर लेने से भगवान ने जो यह कहा है कि 'सांख्य (संन्यास) और योग (कर्मयोग) विविध अर्थात दो प्रकार की निष्ठा इस संसार में है। (गी.३.३), उस द्विविध पद का स्वारस्य विलकुल नष्ट हो जाता है । कर्मयोग शब्द के तीन प्रथं हो सकते है:-(१)पहला अर्थ यह है कि ज्ञान हो या न हो, चातुर्वण्र्य के यज्ञ-याग प्रादि कर्म अथवा श्रुति-स्मृति चर्णित कर्म करने से ही मोन मिलता है। परन्तु मीमांसकों का यह पन गीता को मान्य नहीं (गी. २. ४५)। (२) दुसरा अर्थ यह है कि वित्त-शुदि के लिये कर्म करने (फर्मयोग) की यावश्यक्ता है, इसाजरे गी.र.३२
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