" कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । २६३ जन्म-मरण के चकर से मुक्त हो जायगा? और यदि कहा जाय कि वह मुक्त होजाता है, तो फिर ज्ञान की बड़ाई और योग्यता ही क्या रही? ज्ञानकांड अर्थात् उपनिषदों का साफ यही कहना है कि जब तक महात्मैक्य-ज्ञान हो कर कर्म के विषय में विरक्ति न हो जाय तब तक नाम-रूपात्मक माया से या जन्म-मरण के चार से छुटकरा नहीं मिल सकता और श्रोतसात-धर्म को देखो तो यही मालूम पड़ता है कि प्रत्येक मनुष्य का गाईस्थ्य धर्म कर्मप्रधान या व्यापक अर्थ में यज्ञमय है । इसके अति- रिक्त वेदों का भी कथन है कि यज्ञार्य किये गये कर्म बन्धक नहीं होते और यज्ञ से ही स्वर्गप्राप्ति होती है। स्वर्ग की चर्चा छोड़ दी जाय; तो भी हम देखते हैं कि ब्रह्मदेव ही ने यह नियम बना दिया है कि इन्द्र प्रादि देवताओं के सन्तुष्ट हुए बिना वर्षा नहीं होती और यज्ञ के बिना देवतागण भी सन्तुष्ट नहीं होते ! ऐसी अवस्था में यज्ञ अर्थात् कर्म किये बिना मनुष्य की भलाई कैसे होगी ? इस लोक के क्रम के विषय में मनुस्मृति, महाभारत, उपनिषद् तथा गीता में भी कहा है कि:- अमौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिर्घष्टरनं ततः प्रजाः ॥ यज्ञ में हवन किये गये सब द्रव्य अमि द्वारा सूर्य को पहुँचते हैं और सूर्य से पर्जन्य और पर्जन्य से अज तथा अस से प्रजा उत्पन्न होती है" (मनु. ३.७६ ममा. शां. २६२. ११; मैन्यु. ६. ३७, गी ३. १४)। और, जय कि ये यज्ञ कर्म के द्वारा ही झोते हैं, तब कर्म को छोड़ देने से काम कैसे चलेगा? यज्ञमय कर्मों को छोड़ देने से संसार का चक्र यन्द हो जायगा और किसी को खाने को भी नहीं मिलेगा! इस पर भागवतधर्म तथा गीताशास्त्र का उत्तर यह है कि यज्ञ-याग मादि वैदिक कर्मों को या अन्य किसी भी स्मात तथा व्यावहारिक ज्ञयमय कर्म को छोड़ देने का उपदेश इम नहीं करते। हम तो तुम्हारे ही समान यह भी कहने को तैयार हैं कि जो यज्ञ-चक्र पूर्वकाल से बराबर चलता आया है उसके बंद हो जाने से संसार का नाश हो जायगा; इसलिये हमारा यही सिद्धान्त है कि इस कमरय यज्ञ को कभी भी नहीं छोड़ना चाहिये (मभा. शां. ३४० गी. ३. १६) । परन्तु ज्ञानकाण्ड में अर्थात् उपनिषदों ही में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ज्ञान और वैराग्य से कर्मक्षय हुए बिना मोक्ष नहीं मिल सकता, इसलिये इन दोनों सिद्धान्तों का मेल करके इमारा अन्तिम कथन यह है कि सब कर्मों को ज्ञान से अर्थात् फलाशाछोड़ कर निष्कास या विरक्त शुद्धि से करते रहना चाहिये (गी. ३. १७.१६)। यदि तुम स्वर्ग-फन की काम्य-बुद्धि मन में रख कर ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ-याग करोगे तो, वेद में कहे अनुसार, स्वर्ग-फल तुम्हें निस्सन्देह मिलेगा; क्योंकि वेदाज्ञा कभी भी झूठ नहीं हो सकती। परन्तु स्वर्ग-फल नित्य अर्थात् इमेशा टिकनवाला नहीं है, इसी लिये कहा गया है (बु. ४. ४.६ घेसू.३.१.८ मभा. वन. २६०.३६)-
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३३२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।