पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३३१

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२६२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। जाते हैं और इन्हें करने का कारण तैत्तिरीय संहिता में यह बतलाया गया है कि जन्म से ही ब्राह्मण अपने ऊपर तीन प्रकार के ऋण ले-माता है-एक अपियों का, दूसरा देवताओं का और तीसरा पितरों का । इनमें से ऋषियों का ऋण वेदाम्यास से, देवताओं का यज्ञ से और पितरों का पुत्रोत्पत्ति से चुकाना चाहिये नहीं तो उसकी अच्छी गति न होगी (तै. सं. ६.३.१०.५) महामारत (आ. ३) में एक कथा है कि जरत्कारु ऐसा न करते हुए, विवाह करने के पहले ही उम्र तपश्चर्या करने लगा, तब संतान-जय के कारण उसके यायावर नामक पितर आकाश में लटकते हुए उसे देख पड़े, और फिर उनकी आज्ञा से उसने अपना विवाह किया । यह मी कुछ बात नहीं है कि इन सब को या यज्ञों को केवल ब्राह्मण ही करें । वैदिक यज्ञों को छोड़ अन्य सय कर्म यथाधिकार खियों और शुद्धों के लिये मी विहित हैं इसलिये स्मृतियों में कही गई चातुर्वण्र्य-व्यवस्या के अनुसार जो कर्म किये जायें वै सय यच ही है। उदाहरणार्थ चात्रियों का युद्ध करना भी एक यज्ञ है और इस प्रकरण में यश का यही व्यापक भर्थ विवक्षित है। मनु ने कहा है कि जो जिसके लिये विहित है, वही उसके लिये तप है (११. २३६); और महाभारत में भी कहा है कि:- आरंमयशाः क्षत्राश्व हविर्यज्ञा विशः स्मृताः । परिचारयज्ञाः शूद्राश्च जपयज्ञा द्विनातयः ।। "प्रारम्भ (उद्योग), हवि, सेवा और जप ये चार यच चन्त्रिय, वैश्य, शूद्र और ब्राह्मण इन चार वर्णों के लिये यथानुक्रम विहित हैं (ममा.शां, २३७. २)! सारांश, इस सृष्टि के सब मनुष्यों को यज्ञ ही के लिये ब्रह्मदेव ने उत्पन्न किया है (ममा. अनु. ८.३, और गीता ३.१०, ४.३२)। फलतः चातुर्वण्यं आदि सब शास्त्रोक्त कर्म एक प्रकार के यन ही हैं और यदि प्रत्येक मनुष्य अपने अपने अधि- कार के अनुसार इन शास्त्रोक की या यज्ञों को-धंधे, व्यवसाय या कत्तव्य व्यव- हार को न करे तो ससूचे समाज की हानि होगी और . सम्भव है कि अन्त में उसका नाश भी हो जाये । इसलिये ऐसे व्यापक अर्थ से सिद्ध होता है कि लोकसंग्रह के लिये यज्ञ की सदैव आवश्यकता होती है। अब यह प्रश्न उठता है कि यदि वेद और चातुर्वण्र्य भादि सात-म्यवस्था के अनुसार गृहस्यों के लिये वही पक्षप्रधान-वृत्ति विहित मानी गई है कि तो केवल कर्ममय है, तो क्या इन सांसारिक कमों को धर्मशास्त्र के अनुसार यथा- विधि (अर्थात् नीति से और धर्म के आज्ञानुसार) करते रहने से. ही कोई मनुष्य

  • तैत्तिरीय संहिता का वचन यह है:-"जायमानो वे ब्राह्मणलिमिर्भगवा

नायत ब्रह्मायेगाषन्यो यशेन देवेभ्यः प्रजया पिवृन्य एपवा अतृशो यः पुत्री यला ब्रह्मचारिवातीति ।