२३० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । इमें सन्तति और समृद्धि दो, " " हमें शतायु करो", " हम, हमारे लड़कों बच्चों को और हमारे वीर पुरुषों को तथा हमारे जानवरों को न मारो । ये याग-यज्ञ तीनों वेदों में विहित हैं इसलिये इस मार्ग का पुराना नाम 'यी धर्म और ब्राह्मणग्रंथों में इन यज्ञों की विधियों का विस्तृत वर्णन किया गया है। परन्तु मिन्न भिन्न ब्राह्मणग्रंथों में यज्ञ करने की भिन्न भिन्न विधियाँ हैं, इससे आगे शंका होने लगी कि कौन सी विधि ग्राह्य है तब इन परस्पर विरुद्ध वाक्यों की एकवाक्यता करने के लिये जैमिनि ने अर्थ-निर्णायक नियमों का संग्रह किया । जैमिनि के इन निवमों को ही मीमांसासून या पूर्व-मीमांसा कहते हैं, और इसी कारण से प्राचीन कर्मकाण्ड को मीमांसक मार्ग नाम मिला तया हमने भी इसी नाम का इस प्रग्य में कई बार उपयोग किया क्योंकि आज कल यही प्रचलित हो गया है। परन्तु स्मरण रहे कि यद्यपि "मीमांसा" शब्द ही आगे चल कर प्रचलित हो गया है, तथापि यज्ञ-याग का यह मार्ग बहुत प्राचीन काल से चलता आया है । यही कारण है कि गीता में 'मीमांसा' शब्द कहीं भी नहीं पाया है किन्तु इसके बदले " त्रयी धर्म" (गी.६, २०, २१) या त्रयी विद्या' नाम आये हैं । यज्ञ-याग आदि श्रौत- कर्म-प्रतिपादक ब्राह्मणग्रंथों के बाद आरण्यक और उपनिपद् वने । इनमें यह प्रति. पादन किया गया कि यज्ञ-याग आदि कर्म गौण हैं और ब्रह्मज्ञान ही श्रेष्ठ है, इसलिये इनके धर्म को ज्ञानकाण्ड' कहते हैं। परन्तु मिन्न मिन्न उपनिषदों में मिन्न भिन्न विचार हैं, इसलिये उनकी मी एकवाक्यता करने की आवश्यकता हुई और इस कार्य को वादरायणाचार्य ने अपने वेदान्तसूत्र में किया । इस ग्रन्थ को ब्रह्मास्त्र, शारीरसूत्र या उत्तरमीमांसा कहते हैं। इस प्रकार पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा, प्राम से, कर्मकाण्ड तथा ज्ञानकाण्ड-संबंधी प्रधान ग्रन्थ हैं। वस्तुतः ये दोनों अन्य मूल में मीमांसा ही के है अर्थात् वैदिक वचनों के अर्थ की चर्चा करने के लिये ही बनाये गये हैं। तथापि आज कल कर्मकाण्ड-प्रतिपादकों को केवल 'मीमांसक' और ज्ञान- काण्ड-प्रतिपादकों को वेदान्ती' कहते हैं। कर्मकाण्डवालों का अर्थात् मीमांसकों का कहना है कि श्रौतधर्म में चातुर्मास्य, व्योतिष्टोम प्रभृति यज्ञ-याग आदि कर्म ही प्रधान है और जो इन्हें करेगा उसे ही वेदों के आज्ञानुसार मोक्ष प्राप्त होगा। इन यज्ञ-याग श्रादि कमों को कोई भी छोड़ नहीं सकता। यदि छोड़ देगा तो सम- झना चाहिये कि वह श्रोत-धर्म से वचित हो गया क्योंकि वैदिक यज्ञ की उत्पत्ति सृष्टि के साथ ही हुई है और यह चक्र अनादि काल से चलता आया है. कि मनुष्य यज्ञ करके देवताओं को तृप्त करे, तथा मनुष्य की पर्जन्य आदि सब आवश्य- • ये मंत्र अनेक स्थलों पर पाये जाते हैं, परन्तु उन तव को न दे कर यहाँ केवल एक ही मन्त्र बतलाना वस होगा, कि जो बहुत प्रचलित है। वह यह है "मा नतोके तनये मा न आयौ मा नो गोपु मा नो अन्वेषु रीरिषः। वीरान्मा नो रुद्र भामितो वाहविष्मन्तः सद- मित्रा हवामहे "(ऋ.१.११४.८)।
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