कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । २०५ है एवं प्रात्मा अपने मूल की पूर्ण निर्गुण मुक्तावस्थाको अर्थात् मान-दशाको पहुँच जाता है। मनुष्य क्या नहीं कर सकता है? जो यह कहावत प्रचलित है कि नर करनी करे तो नर से नारायण होय" वह चेदान्त के उक्त सिद्धान्त का ही अनुवाद है और इसी लिये योगवासिष्ठकार ने मुमुक्षु प्रकरण में उद्योग की खूब प्रशंसा की है तथा असन्दिग्ध रीति से कहा है कि अन्त में सब कुछ अधोग से ही मिलता है (यो. २. १. १०-१८)। यह सिद्ध हो चुका कि ज्ञान-प्राति का प्रयत्न करने के लिये जीवात्मा मूल में स्वतंत्र है और स्वावलम्बनपूर्वक दीर्घायोग से उसे कभी न कभी प्राक्तन कर्म के पंजे से छुटकारा मिल जाता है। अब थोड़ा सा इस बात का स्पष्टीकरण और हो जाना चाहिये, कि कर्म-क्षय विस कहते हैं और यह कब होता है । कर्म-क्षय का अर्थ है-सब कसों बन्धनों से पूर्ण पर्थात निःशेप मुक्ति होना ।परन्तु पहले कह पाये है कि कोई पुरुष ज्ञानी भी हो जाय तथापि जब तक शरीर है तब तक सोना, बैठना, भूख, प्यास इत्यादि कर्म छुट नहीं सकते. और प्रारब्ध कर्म का भी बिना भोगे क्षय नहीं होता, इसलिये वह साग्रह से देह का त्याग नहीं कर सकता। इस में सन्देह नहीं कि ज्ञान होने के पूर्व पिाये गये सय कर्मों का नाश ज्ञान होने पर हो जाता है। परन्तु जय कि ज्ञानी पुरुष को याचजीधन ज्ञानोत्तर-काल में भी कुछ न कुछ कर्म करना ही पड़ता है, तब ऐसे कर्मों से उसका छुटकारा कैसे होगा? और, यदि छुटकारा न हो तो यह शक्षा पर होती है कि फिर पूर्व-कर्म-क्षय या शागे मोक्ष भी न होगा। इस पर वेदान्तशास्त्र का उत्तर यह है, कि ज्ञानी मनुष्य की नाम-रूपात्मक देह को नाम-रूपात्मक कर्मों से यद्यपि कभी छुटकारा नहीं मिल सकता, तथापि इन कामों के फलों को अपने ऊपर लाद लेने या न लेने में यात्मा पूर्ण रीति से स्वतंत्र है इसलिये यदि इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके, कर्म के विषय में प्राणिमात्र की जो शासक्ति होती है, केवल उसका ही क्षय किया जाय, तो ज्ञानी मनुष्य कर्म करके भी उसके फल का भागी नहीं होता । कर्म स्यमावतः अन्ध, सचेतन या मृत होता है वह न तो किसी को स्वयं पकड़ता है और न किसी को छोड़ता ही है वह स्वयं न अच्छा है,नबुरा। मनुष्य अपने जीव को इन की में फंसा कर इन्हें अपनी सासक्ति से अच्छा या बुरा, और शुभ या अशुभ बना लेता है। इसलिये कहा जा सकता है कि इस ममत्वयुक्त प्रासक्ति के छूटने पर कर्म के बन्धन आप ही टूट जाते हैं। फिर चाहे वे कर्म बने रहें या चले जाय । गीता में मीस्थान. स्थान पर यही उपदेश दिया गया है कि सच्चा नेप्कय इसी में है, कर्म का त्याग करने में नहीं (गी. ३.४); तेरा अधिकार केवल कर्म करने का है, फल का मिलना न मिलना तेरे अधिकार की बात नहीं है (गी. २.४७), "कमंद्रियः कर्म योगमसक" (गी.३.७)-फल की भाशा न रख कर्मेन्द्रियों को कर्म करने दे त्यश्वा कर्मफलासंगम् " (गी. ४. २०)-कर्मफल का त्याग कर, "सर्वभूता- मभूतात्मा कुर्वपि न लिप्यते" (गी. ५.७)-जिन पुरुषों की समस्त प्राणियों
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