२८० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल। " वह जीवात्मा या शारीर आत्मा, जो मूल में स्वतन्त्र है, ऐसे परमात्मा म मिल जाता है जो नित्य, शुद्ध, बुद्ध, निर्मल और स्वतन्त्र है (ममा शां. ३०८. २७-३०)। पर जो कहा गया है कि ज्ञान से मोक्ष मिलता है, उसका यही अर्थ है। इसके विपरीत जव लड़ देहेन्द्रियों के प्राकृत धर्म की अर्थात् कर्म-सृष्टि की प्रेरणा की प्रव. लवा हो जाती है, तव मनुष्य की अधोगति होती है। शरीर में बंधे हुए जीवात्मा में, देहेन्द्रियों से मोक्षानुकूल कर्म कराने की तथा ब्रह्मात्मन्य-ज्ञान से मोक्ष प्राप्त कर लेने की जो यह स्वतन्त्र शक्ति है, इसकी ओर ध्यान दे कर ही भगवान ने अर्जुन को मात्म-स्वातन्य अर्थात् स्वावलम्बन के तत्व का उपदेश किया है कि:- उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुराभव रिपुरात्मनः ।। "मनुष्य को चाहिये कि वह अपना उदार अापही करे वह अपनी अवनति मापही न करें क्योंकि प्रत्येक मनुष्य स्वयं अपना वन्धु (हितकारी) और स्वयं अपना शत्रु (नाशका) है" (ii.६.५); और इसी हेतु से योगवासिष्ठ (२. सर्ग-5) में देव का निराकरण करके पौरुष के महत्व का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। जो मनुष्य इस ताव को पहचान कर आचरण किया करता है कि सब प्राणियों में एक ही श्रात्मा है, उसी के प्राचरण को सदाचरण या मोक्षानुकूल भाचरण कहते हैं, और जीवात्मा का भी यही स्वतन्त्र धर्म है कि ऐसे आचरण की ओर देहेन्द्रियों को प्रवृत्त किया करे। इसी धर्म के कारण दुराचारी मनुष्य का मन्तःकरण भी सदाचार ही की तरफदारी किया करता है जिसले उसे अपने किये हुए दुष्का का पश्चात्ताप होता है । आधिदैवत पद के पण्डित इसे सदसद्विवेक बुद्धिरूपी देवता की स्वतन्त्र स्फूर्ति कहते हैं। परन्तु ताचिक दृष्टि से विचार करने पर विदित होता है, कि युद्धीन्द्रिय जड़ प्रकृति ही का विकार होने के कारण स्वयं अपनी ही प्रेरणा से कर्म के नियम-यन्धनों से मुक्त नहीं हो सकती, यह प्रेरणा से कर्म-सृष्टि के बाहर के प्रात्मा से प्राप्त होती है। इसी प्रकार पश्चिमी परिढतों का "इच्छा. स्वातंत्र्य " शब्द भी वेदान्त की दृष्टि से ठीक नहीं है, क्योंकि इच्छा मन का धर्म है और पाठवें प्रकरण में कहा जा चुका है कि बुद्धि तथा उसके साथ साथ मन भी कर्मात्मक जड़ प्रकृति के प्रत्यवेद्य विकार है इसलिये ये दोनों स्वयं आप ही कर्म के बंधन से छूट नहीं सकते । अतएव वेदान्तशास्त्र का निश्चय है कि सच्चा स्वातंत्र्य न तो बुद्धि का है और न मन का वह केवल आत्मा का है। यह स्वातंत्र न तो मात्मा को कोई देता है और न कोई उससे छीन सकता है। स्वतंत्र परमात्मा का भ्रंशरूप जीवात्मा जब उपाधि के बंधन में पड़ जाता है, तब वह स्वयं स्वतंत्र्य रीति से ऊपर कहे अनुसार बुद्धि तथा मन में प्रेरणा किया करता है । अन्तःकरण की इस प्रेरणा का अनादर करके कोई बर्ताव करेगा तो यही कहा जा सकता है कि वह स्वयं अपने पैरों में आप कुल्हाड़ी मारने को तैयार है! भगवद्गीता में इसी तार का
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३१९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।