पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३१७

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२७८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । से छूट नहीं सकता इत्यादि वातं यद्यपि अब निर्विवाद सिद्ध हो गई तथापि यह पहले का प्रश्न फिर भी उठता है कि, क्या इस मार्ग में सफलता पाने के लिये भाव- श्यक ज्ञान-प्राप्ति का जो प्रयत्न करना पड़ता है वह मनुष्य के वश में है? अथवा नाम-रूप कर्मात्मक प्रकृति जिधर खाँच उधर ही उसे चले जाना चाहिये। भगवान् गीता में कहते हैं कि प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति " (गी. ३.३३) -निग्रह से क्या होगा? प्राणिमात्र अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार ही चलते है। “मिथ्यैप व्यवसायस्तै प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति "तेरा निश्चय व्यर्थ है जिधर तून चाहेगा घर तेरी प्रकृति तुझे खींच लेगी (गी. १८.५६; २.६०); और मनुजी कहते हैं कि "बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कति" (मनु. २. २१५) -विद्वानों को भी इन्द्रियाँ अपने वश में कर लेती हैं। कमविपाक प्रक्रिया का भी निष्कर्ष यही है क्योंकि जब ऐसा मान लिया जाय कि मनुष्य के मन की सब प्रेरणाएं पूर्व कर्मों से ही उत्पन्न होती हैं, तव तो यही अनुमान करना पड़ता है कि उसे एक कर्म से दूसरे कर्म में अर्थात् सदैव भव-चक्र में ही रहना चाहिये । अधिक क्या कह, कर्म से छुटकारा पान को प्रेरणा और कर्म दोनों वात परस्पर-विरुद्ध हैं। और यदि यह सत्य है, तो यह आपत्तिा पड़ती है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिये कोई भी मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है। इस विषय का विचार अध्यात्मशास्त्र में इस प्रकार किया गया है, कि नाम-रूपात्मक सारी दृश्य-सृष्टि का माधारभूत जो तत्व है वही मनुष्य की जड़देह में भी निवास करता है, इससे उसके कृत्यों का विचार देह और मात्मा दोनों की दृष्टि से करना चाहिये । इनमें से प्रात्मस्वरूपी ब्रह्म मूल में केवल एक ही होने के कारण कभी भी परतन्त्र नहीं हो सकता, क्योंकि किसी एक वस्तु को दूसरे की अधीनता में वह होने के लिये एक से अधिक कम से कम दो- वस्तुओं का होना नितान्त आवश्यक है। यहाँ नाम-रूपात्मक कर्म ही वह दूसरी वस्तु है परन्तु यह कर्म अनित्य हैं और मूल में वह परब्रह्म ही की लीला है जिससे निर्विवाद सिद्ध होता है कि, यद्यपि उसने परब्रह्म के एक अंश को आच्छादित कर लिया है, तथापि वह परब्रह्म को अपना दास कभी भी बना नहीं सकता। इसके अतिरिक यह पहले ही बतलाया जा चुका है, कि जो प्रात्मा कम-सृष्टि के व्यापारी का एकीकरण करके सृष्टि-ज्ञान उत्पन्न करता है, उसे कर्म-सृष्टि से मिन अर्थात् ब्रह्म-सृष्टि का ही होना चाहिये। इससे सिद्ध होता है कि परब्रह्म और उसी का अंश शारीर आत्मा, दोनों मूल में स्वतन्त्र अर्थात् कर्मात्मक प्रकृति की सत्ता से मुक्त हैं। इनमें से परमात्मा के विषय में मनुष्य को इससे अधिक ज्ञान नहीं हो सकता कि वह अनन्त, सर्वव्यापी, नित्य, शुद्ध और मुक है । परन्तु इस परमात्मा ही के अंश-रूप जीवात्मा की बात भिन्न है। यद्यपि वह मूल में शुद्ध, मुक्तस्वभाव, निर्गुण तथा अकता है, तथापि शरीर और बुद्धि आदि इन्द्रियों के बन्धन में फँसा हो के कारण, वह मनुष्य के मन में जो स्फूर्ति उत्पल करता उसका प्रत्यक्षानुभवरूपी ज्ञान हमें हो सकता है । माफ़ का उदाहरण लीजिये, जब