फर्मविपाफ और आत्मस्वातंन्य। २७७ अपस्था को प्रास करने के लिये यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिये कि मा का स्परूप क्या है। नहीं तो करने चलेंगे एक भार होगा कुछ दूसराही! " विनायक प्रफुर्वाणो रचयामास पानरम् "-मूर्ति तो गणेश की पगानी थी; परन्तु (यह न यन कर) थन गई यन्दर की-ठीक यही दशा होगी! इसलिये अध्यात्मशाल के युक्तिवाद से भी यही सिन्द होता है. कि प्रदा-स्वरूप का ज्ञान (अर्थात् प्रशामेश्य का तथा प्रस की अमितता का ज्ञान) प्राप्त फरफे उसे मृत्यु पर्यन्त स्पिर रखना ही कर्म-पाश से मुफ होने का सपा मार्ग है। गीता में भगवान ने भी यही कहा है कि "फमी में मेरी कुछ भी मासकि नहीं। इसलिये मुझे फर्म का अन्धन नहीं होता-और जो इस तस्य फो समझ जाता है यह फर्म-पाश से मुक्त हो जाता है" (गी. ४. १४ तपा १३. २३) । शरण रहे कि यही ज्ञान का पर्ष फेवल शाब्दिक ज्ञान या येवल मानसिक क्रिया नहीं किन्तु हर समय और प्रत्येक स्थान में इसका अर्थ "पहले मानसिकज्ञान होने पर मार फिर इन्मियों पर जय प्राप्त कर लेने पर प्रशाभूत होने की अवस्था या घाशी स्थिति "ही है। यह यात पेदान्तसून के शांकरभाष्य के प्रारम्भ ही में कही गई है। पिछले प्रकरण के अन्त में ज्ञान के सम्बन्ध में अध्यात्मशाख का यही सिद्धान्त घतलाया गया और महाभारत में भी जनक ने सुलभा से कहा है कि-"ज्ञानेन कुरुते यत्नं यत्नेन प्राप्यसे महत्"- शान (भपात मानसिक क्रियारूपी ज्ञान) हो जाने पर मनुष्य यत्न करता चीर यत्न के इस मार्ग से ही अन्त में उसे महत्तय (परमेश्वर) प्राप्त हो जाताई (शा. ३२०.३०) ।सध्यात्मशाल इतना ही पतला सकता है कि मोक्ष प्राप्ति के लिये फिस मार्ग से और कहा जाना चाहिये इससे अधिक यह और कुछ नहीं बतला सकता । शास्त्र से ये यात जान कर प्रत्येक मनुष्य को शासक्ति मार्ग से स्वयं पाप ही चलना चाहिये और बस मार्ग में जो काँटे या बाधाएँ घा, पन्हें निकाल कर अपना रास्ता खुद साफ़ कर लेना चाहिये एवं उसी मार्ग में चलते हुए स्वयं अपने प्रयत्न से ही अन्त में ध्येय वस्तु की प्राप्ति कर जनी चाहिये। परन्तु यह प्रयत्न मी पातंजल योग, अध्यात्मविचार, भति, फर्मफल-त्याग इत्यादि भनेक प्रकार से किया जा सकता है (जी. १२.८-१२), और इस कारण मनुष्य बाधा उलझन में फँस जाता है। इसी लिये गीता में पहले निष्काम कर्मयोग का मुख्य मार्ग यतलाया गया है और उसकी सिर के लिये छठे अध्याय में यम-नियम-प्रासन-प्राणा. याम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधिरूप अंगमूत साधनों का भी वर्णन किया गया वथा भागे सातवें अध्याय से यह पतलाया है कि फर्मयोग का माचरण करते रहमे से ही परमेश्वर का ज्ञान प्रप्यात्मविचार-द्वारा प्रथया (इससे भी सुलभ रीति से) भक्तिमार्ग-द्वारा हो जाता है (गी. १८.५६)। कर्म-बन्धन से छुटकारा धोने के लिये कर्म को छोड़ देना कोई उचित मार्ग नहीं है, किन्तु मलास्मैश्य ज्ञान से पुद्धि को शुद्ध करके परमेश्वर के समान आचरण करते रहने से ही अन्त में मान मिलता है। कर्म को छोड़ देना अम है,क्योंकि कर्म किसी
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