कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । २७५ भोगने के लिये पुनः जन्म लेना ही पड़ता है। इसी लिये वेदान्त का सिद्धान्त है कि मीमांसकों की उपर्युक्त सरल मोक्ष-युक्ति खोटी तथा भ्रान्तिमूलक है । कर्म-बंधन से छटने का यह मार्ग किसी भी उपनिषद् में नहीं बतलाया गया है। यह केवल तर्क के भाधार से स्थापित किया गया है। परन्तु यह तक भी अन्त तक नहीं टिकता । सारांश, कर्म के द्वारा कर्म से छुटकारा पाने की भाशा रखना वैसा ही व्यर्थ है, जैसे एक मन्धा, दूसरे अन्धे को रास्ता दिखला कर पार कर दे! अरखा, प्रव यदि मीमां- सकों की इस युक्ति को मंज़र न करें और कर्म के बंधनों से छुटकारा पाने के लिये सव कमां को भाग्रहपूर्वक छोड़ कर निरुयोगी धन बैठे तो भी काम नहीं चल सकता; क्योंकि अनारध-फी के फलों का भोगना तो याशी रहता ही है, और इसके साप कर्म छोड़ने का आग्रह तथा चुपचाप येठ रहना तामस कर्म हो जाता है एवं इन तामस कर्मों के फलों को भोगने के लिये फिर भी जन्म लेना ही पड़ता है (गी. ८.७, ८)। इसके सिवा गीता में अनेक स्थलों पर यह भी यतलाया गया है, कि जब तक शरीर है तब तक श्वासोच्छ्वास, सोना, बैठना इत्यादि कर्म होते ही रहते हैं, इसलिये सय कर्मों को छोड़ देने का प्राग्रह भी व्यर्थ ही. है-यपार्थ में, इस संसार में कोई सगा भर के लिये भी कर्म करना छोड़ नहीं सकता (गी. ३.५५ ८.११)। कम चाहे मला हो या पुरा, परन्तु उसका फल भोगने के लिये मनुष्य को एक न एक जन्म ले कर हमेशा तैयार रहना ही चाहिये; कर्म अनादि है और उसके असं व्यापार में परमेश्वर भी हस्तक्षेप नहीं करता; सय कर्मी को छोड़ देना सम्भव नहीं है और मीमांसकों के कथनानुसार कुछ कमी को करने से सौर कुछ कमा को छोड़ देने से.भी कर्म-अन्धन से छुटकारा नहीं मिल सकता-- इत्यादि बातों के सिद्ध झो जाने पर यह पहला प्रश्न फिर भी होता है, कि कर्मात्मक नाम-रूप के विनाशी चक्र से छूट जाने एवं उसके मूल में रहनेवाले अमृत तथा अविनाशी तत्व में मिल जाने की मनुष्य को जो स्वाभाविक इच्छा होती है, उसकी चैप्ति करने का कौन सा मार्ग है? वेद और स्मृति-प्रन्यों में यज्ञ-याग आदि पारलौकिक कल्याण के अनेक साधनों का वर्णन है, परन्तु मोनशास की दृष्टि से ये सय कनिष्ठ श्रेणी के हैं। क्योंकि यज्ञ-याग आदि पुराय कमी के द्वारा स्वर्गप्राप्ति तो हो जाती है, परन्तु जय इन पुण्य-कमों के फलों का अन्त हो जाता है तब-चाई दीर्घकाल में ही क्यों न हो-कभी न कभी इस कर्म-भूमि में फिर लौट कर पाना ही पड़ता है (मभा. वन. २५६, २६०, गी... २५ और ६.२०) । इससे स्पष्ट हो जाता है कि कर्म के पंजे से बिलकुल छूट कर अमृततत्व में मिल जाने का और जन्म-मरण की झमट को सदा के लिये दूर कर देने का यह सच्चा मार्ग नहीं है। इस झंभट को दूर करने का अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति का अध्यात्मशाख के कथनानुसार 'ज्ञान' ही एक सवा मार्ग है। ज्ञान' शब्द का अर्थ व्यवहार-ज्ञान या नाम-रूपात्मक सटिशास्त्र का शान नहीं है, किन्तु यहाँ उसका अर्थ प्रमात्मैक्य-ज्ञान है। इसी को ‘विधा भी
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३१४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।