पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३१३

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२७४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशान । लिये फिर भी जन्म लेना पड़ता है, इसलिये इन्हें भी नहीं करना चाहिये । इस प्रकार भिन्न भिन्न कमा के परिणामों के तारतम्य का विचार करके यदि मनुष्य कुछ कों को छोड़ दे और कुछ कमी को शास्त्रोक्त रीति से करता रहे, तो वह आप ही श्राप मुक्त हो जायगा। क्योंकि, प्रारब्ध कमों का, इस जन्म में उपभोग कर लेने से, उनका अन्त हो जाता है और इस जन्म में सब नित्य-नैमित्तिक कमों को करते रहने से तथा निपिद्ध कमी से बचते रहने से नरक में नहीं जाना पड़ता, एवं काम्य को को छोड़ देने से स्वर्ग आदि पुखों के भोगने की भी आवश्यकता नहीं रहती। और जब इहलोक, नरक और स्वर्ग, ये तीनों गति, इस प्रकार छुट जाती हैं, तब आत्मा के लिये मोक्ष के सिवा कोई दूसरी गति ही नहीं रह जाती । इस बाद को 'कर्म-मुचिः या 'नेप्काम्य-सिद्धि' कहते हैं। कर्म करने पर भी जो न करने के समान हो, अर्थात् जब किसी कर्म के पाप-पुण्य का बंधन कर्ता को नहीं हो सकता, तब उस स्थिति को नैष्कर्म्य' कहते हैं। परन्तु वेदान्तशास्त्र में निश्चय किया गया है कि मीमांसकों की उक्त युक्ति से यह नैष्कर्य' पूर्ण रीति से नहीं सघ सकता (वैसू.शांमा. ४. ३. १४); और इसी अभिप्राय से गीता भी कहती है कि “कर्म न करने से नैष्कर्म्य नहीं होता, और छोड़ देने से सिद्धि भी नहीं मिलती"(गी.३.४)। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि पहले तो सब निषिद्ध कमी का त्याग करना ही अस- म्भव है और यदि कोई निपिद्ध कम हो जाता है तो केवल नैमित्तिक प्रायश्चित्त से उसके सब दोपों का नाश मी नहीं होता । अच्छा, यदि मान लें कि उक्त यात सम्भव है, तो भी मीमांसकों के इस कथन में ही कुछ सत्यांश नहीं देख पड़ता कि 'प्रारब्ध, कमी को भोगने से तथा इस जन्म में किये जानेवाले कर्मों को उक्त युक्तिके अनुसार करने या न करने से सब 'संचित ' कमी का संग्रह समाप्त हो जाता है, क्योंकि दो 'संचित' कमों के फल परस्पर-विरोधी-उदाहरणार्थ, एक का फल स्वर्गसुख तथा दूसरे का फल नरकयातना हो, तो उन्हें एक ही समय में और एक ही स्थल में भोगना असम्भव है इसलिये इसी जन्म में प्रारख्घ' हुए कमा से तथा इसी जन्म में किये जानेवाले कमी से सव 'संचित ' कर्मों के फलों का भोगना पूरा नहीं हो सकता । महाभारत में, पराशरगीता में कहा है:- कदाचित्सुकृतं तात कूटस्यमिव तिष्ठति । मनमानस्य संसारे यावद्दुःखाद्विमुच्यते ॥ " कभी कभी मनुष्य के सांसारिक दुःखों से छूटने तक, उसका पूर्वकाल में किया गया पुण्य (उसे अपना फल देने की राह देखता हुआ) चुप बैठा रहता है" (ममा. शां. २०. १७); और यही न्याय सचित पापकर्मों को भी लागू है। इस प्रकार संचित-कर्मोपमोग एक ही जन्म में नहीं चुक जाता; किन्तु संचित को . का एक भाग अथात् अनारन्ध-कार्य हमेशु बचा ही रहता है और इस जन्म में सबलों को यदि उपर्युक युक्ति से करते रहें तोसी बचे हुए अनारस्वकार्य-संचितों को