... ३२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । अध्याय तक ज्ञान विज्ञान का विवेचन कर्मयोग की सिद्धि के लिये ही है, वह स्वतन्त्र नहीं -सातवें से लेकर अन्तिम अध्याय तक का तात्पर्य-इन अध्यायों में भी भक्ति और ज्ञान पृथक् पृथक् वर्णित नहीं हैं, परस्पर एक दूसरे में गुंथे हुए हैं, उनका ज्ञान-विज्ञान यही एक नाम है-तेरह से लेकर सत्रहवें अध्याय तक का सारांश-अठारहवें का उपसंहार कर्मयोगप्रधान ही है-अतः उपक्रम उप- संहार श्रादि मीमांसकों की दृष्टि से गीता में कर्मयोग ही प्रतिपाद्य निश्चित होता है -चतुर्विध पुरुषार्थ-अर्थ और काम धर्मानुकूल होना चाहिये-किन्तु मोक्ष का और धर्म का विरोध नहीं है-गीता का संन्यासप्रधान अर्थ क्योंकर किया गया है-सांख्य+निष्काम कर्म-कर्मयोग-गीता में क्या नहीं है ?-तथापि अन्त में कर्मयोग ही प्रतिपाद्य है-संन्यासमार्गबालों से प्रार्थना। पृ. ४४१-४६९। पन्द्रहवाँ प्रकरण-उपसंहार । कर्मयोगशास्त्र और प्राचारसंग्रह काभेद -यहभ्रमपूर्ण समझकि, वेदान्त से नीति. शास्त्र की उपपत्ति नहीं लगती-गीता वही उपपत्ति बतलाती है-केवल नीतिष्टि से गीताधर्म का विवेचन - कर्म की अपेक्षा युद्धि की श्रेष्ठता-नकुलोपाख्यान -ईसाइयों और चौदों के तत्सदृश सिद्धान्त- 'अधिकांश लोगों का प्राधिक क्षित' और 'मनौदेवत' इन दो पश्चिमी पक्षों से गीता में प्रतिपादित साम्यबुद्धि की तुलना-पश्चिमी प्राध्या. त्मिक पक्ष से गीता की उपपत्ति की समता-झान्ट और ग्रीन के सिद्धान्त -वेदान्त और नीति (पृ. ४८५)-नीतिशास्त्र में अनेक पन्य होने का कारण -पिण्ड- ब्रह्माण्ड की रचना के विषय में मतभेद -गीता के आध्यात्मिक उपपादन में महत्व- पूर्ण विशेपता-मोक्ष, नीति-धर्म और व्यवहार की एकवाक्यता-ईसाइयों का संन्यासमार्ग-सुखश्तक पश्चिमी कर्ममार्ग- उसकी गीता के कर्ममार्ग से तुलना चातुर्वरार्य व्यवस्था और नीतिधर्म के यीच भेद-दुःखनिवारक पश्चिमी कर्ममार्ग और निष्काम गीताधर्म (पृ.४६८)-कर्मयोग का कलियुगवाला संक्षिप्त इति. हास-जैन और बौद्ध यति-शङ्कराचार्य के संन्यासी-मुसलमानी राज्य-भग- वद्भक्त, सन्तमण्डली और रामदास-गीताधर्म का जिन्दापन -गीताधर्म की अमयता, नित्यता और समता-ईश्वर से प्रार्थना।... पृ.४७०-५० परिशिष्ट प्रकरण-गीता की वहिरंगपरीक्षा। महामारत में, योग्य कारणों से उचित स्थान पर गीता कही गई है। वह प्रक्षिप्त नहीं है। -भाग १. गीता और महाभारत का कर्तृत्व-गीता का वर्तमान स्वरूप-महाभारत का वर्तमान स्वरूप-महाभारत में गीता-विषयक सात उल्लेख दोनों के एक से मिलते-जुलते हुए श्लोक और भाषा-सादृश्य -इसी प्रकार अर्थ- सादृश्य-इससे सिद्ध होता है कि गीता और महाभारत दोनों का प्रणेता एक ही है। -भाग २. गीता और उपनिषदों की तुलना-शब्दसादृश्य और अर्थसादृश्य- गीता का अध्यात्म ज्ञान उपनिषदों का ही है-उपनिषदों का और गीता का 1 - 1
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