२७० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । निश्चय हो जाय कि मनुष्य को अब भी प्रवृत्ति-स्वातन्त्र्य प्राप्त नहीं है तो फिर अमुक प्रकार से बुद्धि को शुद्ध करना चाहिये, अमुक कार्य करना चाहिये अमुक नहीं करना चाहिये, अमुक धर्म्य है, अमुक अधम्य, इत्यादि विधि-निषेधशास्त्र के सब झगड़े ही आप ही आप मिट जायेंगे (वैसू. २, ३. ३३), और तब परम्परा से या प्रत्यक्ष रीति से महामाया प्रकृति के दासत्व में सदैव रहना ही मनुष्य का पुर पाय हो जायगा । अथवा पुरुषार्थ ही काहे का? अपने वश की बात हो तो पुरु पार्थ ठीक है। परन्तु जहाँ एक रत्ती भर भी अपनी सत्ता और इच्छा नहीं रह जाती वहा दास्य और परतंत्रता के सिवा और हो ही क्या सकता है? इल में जुते हुए बैलों के समान सब लोगों को प्रकृति की यात्रा में चल कर, एक आधुनिक कवि के कथनानुसार ‘पदार्थधर्म की श्रृंखलाओं' से बंध जाना चाहिये ! हमारे भारत- वर्ष में कम-बाद या देव-वाद से और पश्चिमी देशों में पहले पहल ईलाई धर्म के भवितव्यतावाद से तथा अर्वाचीन काल में शुद्ध आधिभौतिक शान्त्रों के सृष्टि- क्रम-वाद से इच्छा-स्वातन्त्र्य के इस विषय की ओर पंडितों ध्यान आकर्पित हो गया है और इसकी बहुत कुछ चर्चा हो रही है । परन्तु यहाँ पर उसका वर्णन करना असम्भव है, इसलिये इस प्रकरण में यही बतलाया जायगा कि वेदान्त-शास्त्र और भगवद्गीता ने इस प्रश्न का प्या उत्तर दिया है। यह सच है कि कम-प्रवाह धनादि है और जब एक वार कर्म का चक्कर शुरू हो जाता है तब परमेश्वर भी उसमें हस्तक्षेप नहीं करता । तथापि अध्यात्मशास्त्र का यह सिद्धान्त है कि श्य-तृष्टि केवल नाम-रूप या कर्म. ही नहीं है, किन्तु इस नाम- ल्पात्मक आवरण के लिये आधारभूत एक आत्मत्पी, स्वतन्त्र और अविनाशी प्रल-सृष्टि है तथा मनुष्य के शरीर का श्रात्मा उस नित्य एवं स्वतन्त्र परब्रह्म ही का अंश है। इस सिद्धान्त की सहायता से, प्रत्यज्ञ में अनिवार्य दिखनेवाली उक्त अड़- चन से भी छुटकारा हो जाने के लिये, हमारे शास्त्रकारों का निश्चित किया हुअा एक मार्ग है । परन्तु इसका विचार करने के पहले कर्मविपाकप्रनिया के शेप अंश का वर्णन पूरा कर लेना चाहिये । 'जो जस करे सो तस फल चाखा' यानी " जैसी करनी वैसी भरनी " यह नियम न केवल एक ही व्यक्ति के लिये; किन्तु कुटुम्ब, जाति, राष्ट्र और समस्त संसार के लिये भी उपयुक होता है और चूंकि प्रत्येक मनुष्य का किली न किती कुटुम्ब, जाति, अथवा देश में समावेश हुआ ही करता है इस- लिये उसे स्वयं अपने कमी के लाथ साथ कुटुम्ब आदि के सामाजिक कमी के फलों को भी अंशतः भोगना पड़ता है। परंतु व्यवहार में प्रायः एक मनुष्य के कमी का ही 'वेदान्तसूत्र के मन अधिकरण को 'बीवकतृत्वाधिकरण ' कहते है । उस्का पहला ही सूत्र है "कर्ता शास्त्रार्थवन्नात् " अर्शद विधि-निषेधशाख में अर्थवस्व होने के लिये जीव कर्ता मानना चाहिये । पाणिनि के स्वतंत्रः कर्ता (पा. १. ४. ५४ ) सूत्र के 'कता' शब्द ते ही आत्मस्वातंत्र्य का बोध होता है और इससे मालूम होता है कि यह अधिकरण इसी विषय का है।
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