२६८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। इस अनादि कर्म-प्रवाह के और भी दूसरे अनेक नाम हैं, जैसे संसार, प्रकृति, माया, दृश्य सृष्टि, सृष्टि के फायदे या नियम इत्यादि क्योंकि सृष्टि-शास्त्र के नियम नाम-रूपों में होनेवाले परिवर्तनों के ही नियम हैं, और यदि इस दृष्टि से देखें तो सव आधिभौतिक-शास्त्र नाम-रूपात्मक माया के प्रपंच में ही आ जाते हैं। इस भाया के नियम तथा बन्धन सुदृढ़ एवं सर्वव्यापी हैं। इसी लिये इकल जैसे आधिभौतिकशास्त्रज्ञ, जो इस नाम-रूपात्मक माया किंवा दृश्य-सृष्टि के मूल में अथवा उससे परे किसी निस्य तत्व का होना नहीं मानते, उन लोगों ने सिद्धान्त किया है कि यह सृष्टि-चक्र मनुष्य को जिधर ढकेलता है, उधर ही उसे जाना पड़ता है। इन पंडितों का कथन है कि प्रत्येक मनुष्य को जो ऐसा मालूम होता रहता कि नाम-रूपात्मक विनाशी स्वरूप से हमारी मुक्ति होनी चाहिये अथवा अमुक काम करने से हमें अमृतत्व मिलेगा यह सव केवल श्रम है आत्मा या पर- मात्मा कोई स्वतंत्र पदार्य नहीं है और अमृतत्व मी झूठ है। इतना ही नहीं, किन्तु इस संसार में कोई भी मनुष्य अपनी इच्छा से कुछ काम करने को स्वतंत्र नहीं है। मनुष्य पान जो कुछ कार्य करता है, वह पूर्वकाल में किये गये स्वयं उसके या - उसके पूर्वजों के कमां का परिणाम है, इससे उक्त कार्य का करना न करना भी उसकी इच्छा पर कमी अवलम्बित नहीं हो सकता । उदाहरणार्थ, किसी की एक-माध उत्तम वस्तु को देख कर पूर्व कर्मों से अथवा वंशपरम्परागत संस्कारों से उसे चुरा लेने की बुद्धि कई लोगों के मन में, इछा न रहने पर मी, तत्पन्न हो जाती है और वे उस वस्तु को चुरा लेने के लिये प्रवृत्त हो जाते हैं। अर्थात् इन आधिभौतिक पंडितों के मत का सारांश यही है, कि गीता में जो यह तत्व बतलाया गया है कि अनिच्छन् अपि चापणेय पलादिव नियोजितः" (गी. ३.३६ )-इच्छा न होने पर भी मनुष्य पाप करता है यही सच सभी जगह एक समान उपयोगी है, इसके लिये एक भी अपवाद नहीं है और इससे बचने का भी कोई उपाय नहीं है। इस मत के अनुसार यदि देखा जाय तो मानना पड़ेगा कि मनुष्य की जो बुद्धि और इच्छा आज होती है वह कल के कर्मों का फल है, तथा कल जो बुन्दि उत्पन्न हुई थी वह परसों के कर्मों का फल था; और ऐसा होते होते इस कारण-परम्परा का .कभी अन्त ही नहीं मिलेगा तया यह मानना पड़ेगा कि मनुष्य अपनी स्वतंत्रवृदि से कुछ भी नहीं कर सकता, जो कुछ होता जाता है वह सब पूर्वकर्म अर्थात् देव का ही फल है क्योंकि प्राकन कर्म को ही लोग देव कहा करते हैं । इस प्रकार यदि किसी कर्म को करने अथवा न करने के लिये मनुष्य को कोई स्वतंत्रता ही नहीं है, तो फिर यह कहना भी व्यर्थ है कि मनुष्य को अपना आचरण अमुक रीति से सुधार लेना चाहिये और अमुक रीति से ब्रह्मास्य-ज्ञान प्राप्त करके अपनी पुदि को शुद्ध करना चाहिये। तव तो मनुष्य की वही दशा होती है कि जो नदी के प्रवाह में यहती हुई लकड़ी की हो जाती है। अर्थात् जिस और माया, प्रकृति, सृष्टि-कम या कर्म का प्रवाह असे खींचेगा, उसी ओर उसे चुपचाप चले जाना <<
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