कर्मविपास और आत्मस्वातंत्र्य । और नातियों तक को भी भोगना पड़ता है। शांतिपर्व में भीम युधिष्ठिर से कहते हैं:- पापं फर्म कृतं किंचिद्यदि तस्मित दृश्यते । नृपते तस्य पुत्रेषु पौत्रेष्वपि च नप्तषु ।। अर्थात "हे राजा! चाहे किली मादमी को उसके पाप-कर्मों का फल उस समय मिलता सुश्रा न देख पड़े; तथापि वह, उसे ही नहीं, किन्तु उसके पुत्रों, पौत्रों और प्रपौत्रों तक को भोगना पड़ता है" ( १२६. २१)। हम लोग प्रत्यक्ष देखा करते हैं कि कोई कोई रोग वंशपरम्परा से प्रचलित रहते हैं। इसी तरह कोई जन्म से ही दरिद्री होता है और कोई वैभव-पूर्ण राजकुल से उत्पन्न होता है। इन सब बातों की उपपत्ति केवल कर्म-बाद से ही लगाई जा सकती है और बहुतों का मत है कि यही कर्म- पाद की सचाई का प्रमाण है। कर्म का यह चक जब एक बार प्रारम्भ हो जाता है तब उसे फिर परमेश्वर भी नहीं रोक सकता । यदि इस रष्टि से देखें कि सारी सृष्टि परमेश्वर की इच्छा से ही चल रही है, तो कहना होगा कि कर्म-फल का देने- वाला परमेश्वर से मिस कोई दूसरा नहीं हो सकता (वेसू. ३. २. ३८, को. ३.८); और इसी लिये भगवान् ने कहा है कि “ लभते च ततः कामान् मयैव विहितान् हितार" (गी. ७. २२)-मैं जिस का निश्चय कर दिया करता हूँ वही इच्छित फल मनुष्य को मिलता है। परन्तु, कर्म-फल को निश्चित कर देने का काम यद्यपि ईश्वर का है, तथापि वेदान्तशास्त्र का यह सिद्धान्त है कि वे फल इर एक के खरे- खोटे कर्मों की अर्थात् कर्म-कर्म की योग्यता के अनुरूप ही निश्चित किये जाते हैं। इसी लिने परमेश्वर इस सम्बन्ध में वस्तुतः उदासीन ही है अर्थात् यदि मनुष्यों में भले-बुरे का भेद हो जाता है तो उसके लिये परमेश्वर वैषम्य (विपमन्दि) और नयम (निर्दयता) दोपों का पान नहीं होता (वेसू. २. १.३४)। इसी प्राशय को लेकर गीता में भी कहा है कि " समोऽहं सर्वभूतेषु" (६.२६) अर्थात् ईश्वर सब के लिये सम है अथवा- नादत्ते कस्यनित् पापं न चैव सुकृतं विभुः ॥ परमेश्या न तो किसी के पाप को लेता है न पुण्य को, कर्म या माया के स्वभाव का जा रहा है जिससे प्राणिमान को अपने समापने कर्मानुसार सुखदुःख भोगने पड़ते है (गी. ५.१४. १५)। सारांश, यद्यपि मानवी बुद्धि से इस बात का पता नहीं लगता कि परमेश्वर की इच्छा से संसार में कर्म का आरम्भ कर हुआ और तदं- गनूत मनुष्य कर्म के बन्धन में पहले पहल कैले फँस गया तथापि जब हम यह देसते हैं कि कर्म के भविष्य परिणाम या फल केवल कर्म के नियमों से ही उत्पन्न असा करते हैं, तब हम अपनी शुद्धि से इतना तो अवश्य निश्चय कर सकते हैं कि संसार के प्रारम्भ से प्रत्येक प्राणी नाम-रूपात्मक अनादि कर्म की कैद में बँध सा गया है। कर्मणा बध्यते जन्तु: "ऐसा जो इस प्रकरण के आरम्भ में ही वचन दिया हुआ है, उसका अर्थ भी यही है।
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