पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३००

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कर्मविपाक और आत्मस्वातन्त्र्य । हायड, दोनों के मूल में यदि एक ही नित्य और स्वतंत्र भात्मा है, तो अय सहज ही प्रश्न होता है कि पिण्ड के खात्मा को प्रशारत के प्रात्मा की पहचान हो जाने में कौन सी अड़चन रहती है और वह दूर कैसे हो? इस प्रक्ष को हल करने के लिये नाम-रूपों का विवेचन करना आवश्यक होता है, क्योंकि वेदान्त की दृष्टि से सब पदार्थों के दो ही वर्ग होते हैं, एक आत्मा अथवा परमात्मा, और दूसरा उसके जपर का नाम-रूपों का प्रावरणः इसलिये नाम-रूपात्मक आवरण के सिवा प्रय अन्य कुछ भी शेष नहीं रहता। वेदान्तशास्त्र का मत है कि नाम-रूप का यह आवरण किसी जगह धना तो किसी जगह विरल होने के कारण एश्य सृष्टि के पदार्थों में सचेतन और अचेतन, तथा सचेतन में भी पशु, पक्षी, मनुष्य, देव, गन्धर्व और राक्षस इत्यादि भेद हो जाते हैं। यह नहीं कि आत्मा-रूपी ग्रह किसी स्थान में न हो। वह सभी जगह है वह पत्थर में है और मनुष्य में भी है । परन्तु, जिस प्रकार दीपक एक होने पर भी, किसी लोहे के वपस में, अथवा न्यूना- धिक स्वप्न फाँच की लालटेन में उसके रखने से अन्तर पड़ता है उसी प्रकार आत्मतत्व सर्वत्र एक ही होने पर भी उसके ऊपर के कोश, अर्थात् नाम-रूपात्मक आवरण के तारतम्य-भेद से अचेतन और सचेतन जैसे भेद हो जाया करते हैं। और तो क्या, इसका भी कारण वही है कि सचेतन में मनुष्यों और पशुओं को ज्ञान सम्पादन करने का एक समान ही सामर्थ्य क्यों नहीं होता। आत्मा सर्वन एक ही है सही; परन्तु वह श्रादि से ही निर्गुण और उदासीन होने के कारण मन, बुद्धि इत्यादि नाम-रूपात्मक साधनों के बिना, स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता; और ये साधन मनुष्य योनि को छोड़ अन्य किसी भी योनि में उसे पूर्णतया प्राप्त नहीं होते, इस लिये मनुष्य-जन्म सब में श्रेष्ठ कहा गया है। इस श्रेष्ठ जन्म में आने पर आत्मा के नाम-रूपात्मक आवरण के स्थूल और सूक्ष्म, दो भेद होते हैं। इनमें से स्यूल भावरण मनुष्य की स्थूल देह ही है कि जो शुक्र-शोणित आदि से बनी है । शुक्र से आगे चल कर स्नायु, पास्थि और मजा; तथा शोणित अर्थात रक्त से त्वचा, मांस और केश उत्पन्न होते हैं ऐसा समझ कर इन सम को वेदान्ती कोश' कहते हैं। इस स्थूल कोश को छोड़ कर जब हम यह देखने लगते हैं कि इसके अन्दर क्या है तब क्रमशः वायुरूपी प्राण अर्थात् 'प्राणामय कोश,' मन अर्थात् 'मनोमय कोश, पुद्धि प्रांत 'ज्ञानमय कोश' और अन्त में आनन्दमय कोश मिलता है। श्रात्मा उससे भी परे है । इसलिये तैत्तिरीयोपनिषद् में शसमय कोश से आगे बढ़ते बढ़ते अन्त में आनन्दमय कोश पतला कर वरुण ने भूगु को भात्म-स्वरूप की पहचान करा दी है (ते. २.१-५,३.२-६)। इन सब कोशों में से स्थूल देह का कोश छोड़ कर बाकी रहे हुए प्राणादि कोशों, सूक्ष्म इन्द्रियों और पञ्चतन्मात्राओं को चेदान्ती 'लिंग' अथवा सूक्ष्म शरीर कहते हैं । वे लोग, 'एक ही आत्मा को भिन मिल योनियों में जन्म कैसे प्राप्त होता है इसकी उपपत्ति, सांख्य-शास्त्र की तरह बुद्धि के अनेक ' भाव मान कर नहीं लगाते; असमय