गीतारहस्य के विषयों की अनुक्रमाणका । सिद्धि-श्रद्धासे परमेश्वर का ज्ञान हो जाने पर भी निर्वाह नहीं होता-मन में उसके प्रतिफलित होने के लिये निरतिशय और निर्हेतुक प्रेम से परमेश्वर का चिन्तन करना पड़ता है-इसी को भक्ति कहते हैं-सगुण प्रम्यक का चिन्तन कष्टमय और दुस्साध्य है-अतएव उपासना के लिये प्रत्यक्ष वस्तु होनी चाहिये -ज्ञानमार्ग भार भक्तिमार्ग परिणाम में एक ही हैं-तथापि ज्ञान के समान भक्ति निष्ठा नहीं हो सकती- भक्ति करने के लिये प्रहण किया हुआ परमेश्वर का प्रेमगम्य और प्रत्यक्ष रूप-प्रतीफ शब्द का अर्थ-राजविद्या और राजगुण शब्दों के अर्प-गीता का प्रेमरस (पृ. ४१७)-परमेश्वर की भनेक विभूतियों में से कोई भी प्रतीक हो सकती है-यहुतेरों के अनेक प्रतीक और उनसे होनेवाला अनर्थ - उसे टालने का उपाय - प्रतीक और तत्सम्बन्धी भावना में भेद -प्रतीक कुछ भी हो, भावना के अनुसार फल मिलता है-पिभित देवताओं की उपासनाएँ-इसमें भी फलदाता एक ही परमेश्वर है, देवता नहीं-किसी भी देवता को भजो, यह परमेश्वर का ही प्रविधिपूर्वक भगन होता है इस दृष्टि से गीता के भक्तिमार्ग की श्रेष्ठता-श्रद्धा और प्रेम की शुद्धता-अशुन्छता- क्रमशः उयोग करने से सुधार श्रीर अनेक जन्मों के पश्चात् सिद्धि-जिसे न भन्दा है न बुद्धि, वह हुना-युन्द्रि से और भक्ति से अन्त में एक ही मत प्रामज्ञान होता है (पृ. ४२९)-फर्मविपाक-प्रक्रिया के और अध्यात्म के. सब सिद्धान्त भक्तिमार्ग में भी स्थिर रहते हैं- उदाहरणार्थ गीता के जीव और परमेश्वर का स्वरूप-तथापि इस सिद्धान्त में कभी कभी शब्द-भेद हो जाता है - कर्म ही अब परमेश्वर हो गया-महापंगा और कृष्णार्पण -परन्तु अर्थ का अनर्थ होता होतो शब्द भेद भी नहीं किया जाता-गीताधर्म में प्रतिपादित श्रद्धा और ज्ञान का मेल-भक्तिमार्ग में संन्यासधर्म की अपेक्षा नहीं है-भक्ति का और कर्म का विरोध नहीं है-भगवत पार लोकसंग्रह-स्वकर्म से ही भगवान् का यजन-पूजन ज्ञानमार्ग निवर्ण के लिये है, तो भक्तिमार्ग स्वी-शूद आदि सब के लिये खुला हुमा है-चन्तकाल में भी अनन्य भाव से परमेश्वर के शरणापन्न होने पर मुक्ति-अन्य सब धमाँ की अपेक्षा नीता के धर्म की श्रेष्ठता। ...पू. ४०५-४४०। चादहवाँ प्रकरण-गीताध्यायसंगति । विषय-प्रतिपादन की दो रीतियाँ-शास्त्रीय और संवादात्मक -संवादात्मक पदति के गुगा-दोष-गीता का प्रारम्म -प्रथमाध्याय -द्वितीय अध्याय में 'सांख्य' और 'योग' इन दो मार्गों से ही प्रारम्भ-तीसरे, चौथे और पांचवें अध्याय में कर्मयोग का विवेचन-कर्म की अपेक्षा साम्यबुद्धि की श्रेष्ठता-कर्म छुट नहीं सकते - सांस्यनिष्ठा की अपेक्षा कर्मयोग श्रेयस्कर है-साम्यबुद्धि को पाने के लिये इन्द्रिय-निग्रह की भावश्यकता - अध्याय में वर्णित इन्द्रिय-निग्रह का साधन -कर्म, भक्ति और ज्ञान, इस प्रकार गीता के तीन स्वतन्त्र विभाग करना उचित नहीं है-ज्ञान और भक्ति, फर्मयोग की साम्यवृद्धि के साधन हैं - सताव त्वम्, तव, असि इस प्रकार पडभ्यायी नहीं होती-सातवें अध्याय से लेकर पारवें ...
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३०
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