अध्यात्म। २५७ मत समझो, और न परत्रण के विषय में अपने अद्वैत-भाव ही को छोड़ी। इसके सिवा यह सोचना चाहिने की यद्यपि प्रति को एक भिा निगुणात्मक स्वतन्त्र पदार्थ मान भी लिया जाये; तथापि इस प्रश्न का उत्तर तो दिया ही नहीं जा सकता कि उसमें वृष्टि को निर्माण करने के लिये प्रथमतः सादिः (महार) या सइंकार कैसे उत्पन्न हुप्रा । और, जब कि यह दोप कभी दल ही नहीं सकता है, सो फिर प्रकृति को स्वतन्ना मान लेने में क्या लाभ है ? सिर्फ इतना कहो, कि यह बात समझ में नहीं पाती कि मूल मा से सरा अर्थात् प्रकृति कैसे निर्मित हुई । इसके लिये प्रकृति को स्वतन्त्र मान लेने की ही उन्ध आवश्यकता नहीं । मनुष्य की बुद्धि की कौन कहे, परन्तु देवताओं की दिव्य-शुद्धि से भी सत. की उत्पत्ति का रहस्य समझ में आ जाना संभव नहीं क्योंकि देवता भी श्य सृष्टि के प्रारम्भ होने पर उत्पन्न हुए हैं। उन्हें पिछला हाल पया मालूम ? (गी. १०. २ देखो)। परतु हिरण्यगर्भ देवताओं से भी बहुत प्राचीन और श्रेष्ट है और ऋग्वेद में ही कहा है कि भारम्भ में वह अफेलाही " भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् " (अर. १०. १२१. १)सारी सृष्टि का 'पति' अर्थात् राजा या अध्यक्ष था । फिर उसे यह बात क्योंकर मालूम न होगी? और यदि उसे मालूम होगी; तो फिर कोई पूज सकता है कि इस बात को दुर्योध या अगम्य क्यों कहते हो? अतएव इस सूक्त के प्रापि ने पहले तो उत्ता पक्ष का यह बौपचारिक उत्तर दिया है कि "; वह इस बात को जानता होगा;" परन्तु अपनी बुद्धि से प्रम- देव के भी ज्ञान-सागर की थाह लेनेवाले इस अपि ने प्रार्य से साशंक हो सन्त मैं तुरन्त ही कह दिया है, कि "अथवा, न भी जानता हो! कौन कह सकता है ? क्योंकि यह भी सव ही की श्रेणी में है इसलिये 'परम ' कहलाने पर भी 'माकाश' ही में रहनेवाले जगत के इस अध्यक्ष को सत, असर, 'प्रकाश और जल के भी पूर्व की बातों का ज्ञान निश्चित रूप से कैसे हो सकता है ? " परन्तु यद्यपि यह बात समझ में नहीं खाती कि एक 'असर' अर्यात प्रत्यक्त और निर्गुण द्रव्य ही के साथ विविध नाम-रूपात्मक सत् का अर्थात् मूल प्रकृति का संबंध कैसे हो गया, तथापि मूलबस के एकत्व के विषय में भरपि ने अपने अद्वैत-भाव को डिगने नहीं दिया है ! यह इस पात का एक उत्तम उदाहरण है, कि साविक श्रद्धा और निर्मल प्रतिभा के पल पर मनुष्य की युद्धि प्राचिन्य बस्तुओं के सघन वन में सिंह के समान निर्भय हो कर कैसे सबार किया करती है और वहाँ की अतयं पातों का यथाशक्ति कैसे निधय किया करती है! यह सचमुच ही आश्चर्य तथा गौरव की बात है कि ऐसा सूक्त अग्वेद में पाया जाता है ! हमारे देश में इस सूक्त के ही विषय का आगे ग्रामणों (तेत्ति. मा. २.८.६) में, उपानेपों में और अनंतर वेदान्तशास के अन्यों में सूक्ष्म रीति से विवेचन किया गया है । और पश्चिमी देशों में भी अर्वा- चीग काल के कान्ट इत्यादि तावज्ञानियों ने उसीका अत्यंत सूक्ष्म परीक्षण किया है। परन्तु एसरण रहे कि इस खुल के पि की पवित्र बुद्धि में जिन एडम सिद्धान्तों की
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