अध्यात्मा २५३ तम पासीत्तमसा गूढमग्रेड- प्रकेत सलिल सर्वमा इदम् । तुच्छेनाम्वपिहितं यदासीद तपसस्तन्महिनाऽजायतकम् ॥३॥ ३. जो ( यत) ऐसा कहा जाता है कि, अन्धकार था, आरम्भ में यह सवअन्ध- कार से व्याप्त (और) भेदाभेद-रहित जल था, (या) आभु अर्थात् सर्वव्यापी ब्रह्म (पहले ही) तुच्छ से अर्थात् झूठी माया से भाच्छादित था, वह (तत्) मूल में एक (ब्राम ही) तप की महिमा से (आगे रूपांतर से) प्रगट हुआ था। ४. इसके मन का जो रेत अर्थात् पीज प्रथमतः निकला, वही आरम्भ में काम (अर्थात् सृष्टि निर्माण करने की प्रवृत्ति या शफि) हुआ। ज्ञाताओं ने अन्तः- करण में विचार करके बुद्धि से निश्चित किया, कि (यही) असत् में अर्थात् मूल परब्रह्म में सत् का यानी विनाशी दृश्य सृष्टि का (पहला) सम्बन्ध है। कामस्तदने समवर्तताधि मनसो रेतःप्रथम यदासीत् । सतो वन्धुमसति निरविन्दन हृदि मतीच्या कवयो मनीपा men ऋचा तीसरी- कुछ लोग इसको प्रथम तीन चरणों को स्वतन्त्र मान कर उनका ऐसा विधानात्मक अर्थ करते है, कि “ अन्धकार, अन्धकार से व्याप्त पानी, या तुच्छ से भाच्छादित आमु ( पालापन ) था।" परन्तु इमारे मत से या भूल है। मयोंकि पहली दो कचाओं में जब कि ऐसी रपष्ट उक्ति है, फि मूलारग्म में कुछ भी न था, सब उसके विपरीत इसी सूक्त में यह कहा जाना सम्भव नहीं, कि मूलारम्भ में अन्धकार या पानी था । मच्छा; यदि सा अर्धे करें भी, तो तीसरे चरण के यत् शन्द को निरर्थक मानना होगा। अतएव तीसरे चरण के 'या' का नोथे चरण 'तत् ' से सम्बन्ध लगा कर, जैसा कि एग ने ऊपर किया है, अर्थ करना आवश्यक है । मूलारम्भ में पानी वगेरह पदार्थ थे। ऐसा काहनेवालों को उत्तर देने के लिये इस सूक्त में यह ना आई ३; और इसमें ऋपि का उद्देश यह बतलाने का है, कि तुम्हारे कथनानुसार मूल में तम, पानी इत्यादि पदार्थ न थे, किन्तु एक नाम का ही आगे यह सर विस्तार हुआ है । ' तुच्छ ' ओर • आभु ' ये शब्द एक दूसरे के प्रतियोगी है अतएव तुच्छ के विपरीत आभु शब्द का अर्थ वड़ा या समर्थ होता है और ऋग्वेद में जहां अन्य दो सानों में इस शब्द का प्रयोग हुआ है, वहीं साय- णाचार्य ने भी उसका यही अर्थ किया है (म. १०.२७.१,४)। पंचदशी (चित्र. १२९, १३०) में तुच्छ शब्द का उपयोग माया यो लिये किया गया है(नृसिं. उत्त.९. देखो), अर्थात 'आग' का अर्थ पोलापन न हो कर 'परमश' ही होता है। सर्व भाः पदम् -यौँ आः (भा+अस्) अस् धातु का भूतकाल है और इसका अर्थ 'आसीत् होता है।
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