गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाला परायणम्'-आकाश ही सव का मूल है (जां. १.६); (५) मृत्यु का, वृहदारण्यक में नैवेह किंचनान आसीन्मृत्युनवेदमावृतमासीत -पहले यह कुछ भी न था, मृत्यु से सब आच्छादित या (ह. १.२.१); और (६) तम का, मैन्युपनिषद् में 'तमो वा इदमन आसीदेकम् । ( मै. ५. २)- पहले यह सब अकेला तेम (तमोगुणी, अन्धकार) था, आगे उससे रज और सत्व हुआ । अन्त में इन्हीं वेदवचनों का अनुसरण करके मनुस्मृति में सृष्टि के आरम्भ का वर्णन इस प्रकार किया गया है:- आसीदिदं तमोभूतप्रमज्ञातमलक्षणम् । अप्रतय॑मविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ अर्थात् " यह सव पहले तम से यानी अन्धकार से व्याप्त था, भेदाभेद नहीं जाना जाता था, अगम्य और निद्रित सा था फिर आगे इसमें अन्यक परमेश्वर ने प्रवेश करके पहले पानी उत्पन्न किया" (मनु. १.५-८) सृष्टि के आरम्भ के मूल द्रव्य के सम्बन्ध में उक्त वर्णन या ऐसे ही भिन्न भिन्न वर्णन नासदीय सूक्त के समय मी अवश्य प्रचलित रहे होंगे; और उस समय भी यही प्रश्न उपस्थित हुआ होगा, कि इनमें कौन सा मून-व्य सत्य माना जावे ? अतएव उसके सत्यांश के विषय में इस.. सूक के ऋपि यह कहते हैं, कि- सूक्ता नासदासीनो सदासीत्तदानी १. तव अर्थात् मूलारंभ में असत् नहीं नासीदजो नो व्योमा परो यत् । था और सत् भा नहीं था। अंतरिक्ष किमावरीवः कुह कस्य शर्म- नहीं था और उसके परे का आकाश भी जम्मः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥३॥ न था । (ऐसी अवस्था में) किस ने (किस पर) आवरण डाला ? कहाँ ? किसके सुख के लिये ? अगाध और गहन जल (भी) कहाँ था?* न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि २. तव मृत्यु अर्थात् मृत्युप्रस्त नाशवान् न रात्र्या अहवासीत्मकेतः। दृश्य सृष्टि न थी, अतएव (दूसरा) आनीदवातं स्वधया तदेक अमृत अर्थात् अविनाशी नित्य पदार्थ तस्माद्धान्यन्न परः किंचनाऽऽस ॥२॥ (यह भेद ) भी न था। (इसी प्रकार) रात्रि और दिन का भेद समझने के लिये कोई साधन (=प्रकेत)न था । (जो कुछ था) वह अकेला एक ही अपनी शक्ति (स्वघा) से वायु के विना श्वासो- च्छ्वास लेता अर्थात् स्फूर्तिमान होता रहा । इसके अतिरिक्त या इसके परे और कुछ भी न था।
- ऋचा पहली-चौथे चरण में 'मासीद किन् ' यह अन्वय करके हमने उक्त
अर्थ दिया है और उसका भावार्थ है ' पानी तव नहीं था। (तै. बा.२.२. ९ देखो)। भाषांतर।