अध्यात्म २५१ नहीं देते। इतना ही नहीं किन्तु ऐस अध्यात्म-विचारों से परिपूर्ण और इतना प्राचीन लेख भी अय तक कहीं उपलब्ध नहीं हुआ है । इसलिये अनेक पश्चिमी पंडितों ने धार्मिक इतिहास की सटि से भी इस सूक्त को अत्यंत महावपूर्ण जान कर प्राश्रय-चकित हो अपनी अपनी भाषामों में इसका अनुवाद यह दिखलाने के लिये किया है, कि मनुष्य के मन की प्रवृत्ति इस नाशवान और नाम-रूपात्मक सृष्टि के परे नित्य और अचिन्त्य प्रम-शक्ति की और सहज ही कैसे झुक जाया करती है। यह भग्वेद के इस मंडल का २६ वा मुक्त है। और इसके प्रारम्भिक शब्दों से इसे " नासदीय सूत" कहते हैं। यही सूक्त तैत्तिरीय प्रामण (२.८.६) में लिया गया है और महाभारतान्तर्गत नारायणीय या भागवत-धर्म में इसी सूक्त के प्राधार पर यह बात पतलाई गई है कि भगवान की इच्छा से पहले पहल सृष्टि कैसे उत्पा हुई (मभा. शां. ३४२.८)। सानुक्रमणिका के अनुसार इस सूक्त का ऋपि परमेष्ठि प्रजापति है और देवता परमात्मा है, तथा इसमें निष्टुप् पृत्त के यानी ग्यारह प्रक्षरों के पार चरणों की सात ऋचाएँ हैं। 'सत्' और 'असत् ' शब्दों के दो दो अर्थ होते हैं। अतएव सृष्टि के मूलद्रव्य को सत' कहने के विषय में उप- निपत्कारों के जिस मतभेद का उल्लेख पहले हम इस प्रकरण्य में कर चुके हैं। वही मतभेद ऋग्वेद में भी पाया जाता है। उदाहरणार्य, इस मूल कारण के विषय में कहीं तो यह कहा है कि “ एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति (ऋ. १. १६४.४६) अथवा " एकं सन्त बहुधा कल्पयन्ति " (*. १. ११४. ५) वह एक और सत यानी सदेव स्थिर रहनेवाला है, परन्तु उसी को लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। और कहीं कहीं इसके विन्द यह भी कहा है कि " देवानां पूर्ये युगेऽसतः सद. जायत" (ऋ. १०. ७२.७)-देवताओं के भी पहले असत् से अर्थात् अव्यक से 'सत्' अर्थात् व्यक सृटि उत्पा हुई। इसके अतिरिक, किसी न किसी एक श्य तप से सृष्टि की उत्पत्ति होने के विषय में ऋग्वेद ही में भिन्न मिन अनेक वर्णन पाये जाते हैं। जैसे सृष्टि के प्रारम्भ में मूल हिरण्यगर्भ था, अमृत और मृत्यु दोनों उसकी ही छाया है, और आगे उसी से सारी सृष्टि निर्मित हुई है (.10. १२१. १,२), पहले विराट्ररूपी पुरुप था, और उससे यज्ञ के द्वारा सारी सृष्टि उत्पन्न हुई (ऋ. १०.६०), पहले पानी (आप) था, उसमें प्रजापति उत्पा हुभा (ऋ. १०. ७२. ६, १०, ८२. ६) प्रत और सत्य पहले उत्पल हुए, फिर रात्रि (अन्धकार), और उसके बाद समुद्र (पानी), संवत्सर इत्यादि उत्पन्न हुए (क. १०. १६०.१)। ऋग्वेद में वर्णित इन्हीं मूल द्रव्यों का आगे अन्यान्य स्थानों में इस प्रकार उल्लेख किया गया है, जैसे:-(१)जल का, तैत्तिरीय वासरण में आपो चा इदमग्रे सलिलमासीत् यह सय पहले पतला पानी था (ते. ग्रा. १.१.३. ५)(२) असत् का, तैत्तिरीय उपनिषद् में प्रसद्वा इवमम आसीत् '--यह पहले असत् था (ते.२.७); (३) सत् का, बांदोग्य में सदेव सौम्येदमन मासीत' -यह सब पहले सत् ही था (छां.६.२) अथवा (2) आकाश का, 'भाकाशः
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