ar गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । करना चाहिये - भगवान् का और जनक का उदाहरण-फलाशा-त्याग, वैराग्य और कोसाह (पृ.३८)-लोकसंग्रह और उसज्ञ लक्षण-ब्रह्मज्ञान का यही सच्चा पर्यवसान है-तथापि वह लोकसंग्रह भी चातुर्वण्य व्यवस्था के अनुसार और निष्काम हो (पृ. ३६)-स्मृतिग्रन्या में वर्णित चार पाश्रमों का, आयु बिताने का मार्ग-गृहस्थानमा महत्व-भागवत धर्म-भागवत और स्मार्त के मूल अर्थ-गीता में कर्मयोग अर्थात् भागवतधर्म ही प्रतिपाय है-गीता के कर्म- योग, और मीमांसकों के कर्ममार्ग, का भेद -सात संन्यास, और भागवत संन्याल, का भेद-दोनों की एकता-मनुस्मृति के वैदिक कर्मयोग की और भागवतधर्म की प्राचीनता-गीता के अध्याय-समातिसूचक संकल्प का अर्थ -गीता की अपूर्वता और प्रत्यानत्रयी के तीन भागों की सार्थकता (पृ. ३५३)-संन्यास (सांख्य) और कर्मयोग (योग). दोनों मार्गों के मेद अभेद का नश्शे में संलिप्त वर्णन-भायु बिताने के मिन्न भिन्न मार्ग-गीता का यह सिद्धान्त कि, इन सब में कर्मयोग ही श्रेष्ठ है-इस सिद्धान्त का प्रतिपादक ईशावास्योपनिषद का मन्त्र, इस नन्न के शाक्षरभाष्य का विचार - मनु और अन्यान्य स्तुतियों के ज्ञान-कम-समुच्चयात्मक वचन। OP बारहवाँ प्रकरण-लिद्धावस्था और व्यवहार । समाज की पूर्ण अवस्था-पूर्णावस्था में सभी स्थितप्रज्ञ होते है-नीति की परावधि-पश्चिमी स्थितमत-स्थितमज्ञ की विधि-नियमीले परे स्थिति-कर्म- योगी स्थितप्रज्ञ का नाचरण ही परम नीति है-पूर्णावस्यावाली परमावधि की नीति में, और लोभी समाज की नीति में भेद-वासरोध में वर्णित उत्तम पुरुप का लक्षण - परन्तु इस भेद से नीति-धर्म की निलता नहीं घटती (पृ. ३७७)-इन मेले को स्थितप्रज्ञ किस दृष्टि से करता है-समाज का श्रेय, दल्याण अथवा सर्व- भूतहित-तथापि इल बास अष्टि की अपेक्षा सान्यशुद्धि ही श्रेष्ठ है- अधिकांश लोगों के अधिक हित और लाम्यश्रुदि, इन तत्वों की तुलना-साम्यबुद्धि से जगत् में बर्ताव करना-परोपकार और अपना निवांह-मात्मौपम्यदुद्धि -उसका व्याप- कन्द, महत्व और संपत्ति - 'वसुधैव कुटुम्बकम् ' (पृ. ३६०)-शुद्धि सस हो जाय तो भी पात्र-अपास का विचार नहीं छूटता-निर्वैर का अर्थ निष्क्रिय अथवा निप्रतिकार नहीं है-जैसे को तैसा-दुष्ट-निग्रह-देशाभिमान, कुलाभिमान इत्यादि की उपपत्ति-देश-काल-मर्यादापरिपालन और आत्मसंरना-ज्ञानी पुरुष का कर्तव्य -लोकसंग्रह और कर्मयोग-विषयोपसंहार -स्वार्थ, परार्थ और परमार्य। ...पृ.३६६-४०४॥ तेरहवाँ प्रकरण-भक्तिमार्ग। अल्यवृद्धिवाले साधारण मनुष्यों के लिये निर्गुण ब्रह्म-स्वरूप की दुर्बोधता- ज्ञान-प्राप्ति के साधन, प्रद्धा और बुद्धि-दोनों की परस्परापेक्षा-श्रद्धा से व्यवहार-
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